पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८

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योगवाशिष्ठ।

हंस पकड़ता है वैसे ही दशरथजी की अँगुलियों को उन्होंने ब्रहण किया और बोले, हे पिता! मेरा चित्त तीर्थ और ठाकुरद्वारों के दर्शनों को चाहता है। आप आज्ञा कीजिये तो मैं दर्शन कर आऊँ। मैं तुम्हारा पुत्र हूँ। आगे मैंने कभी नहीं कहा यह प्रार्थना अब ही की है इससे यह वचन मेरा न फेरना, क्योंकि ऐसा त्रिलोकी में कोई नहीं है कि जिसका मनोरथ इस घर से सिद्ध न हुआ हो इससे मुझको भी कृपाकर आज्ञा दीजिये। इतना कहकर बाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जिस समय इस प्रकार रामजी ने कहा तब वशिष्ठजी पास बैठे थे उन्होंने भी दशरथ से कहा, हे राजन्! इनका चित्त उठा है रामजी को मात्रा दो तीर्थ कर आवें और इनके साथ सेना, धन, मन्त्री और ब्राह्मण भी दीजिए कि विधिपूर्वक दर्शन करें तब महाराज दशरथ ने शुभ मूहुर्त दिखाकर रामजी को आज्ञा दी। जब वे चलने लगे तो पिता और माता के चरणों में पड़े और सबको कण्ठ लगाकर रुदन करने लगे। इस प्रकार सबसे मिलकर लक्ष्मण आदि आ, मन्त्री और वशिष्ठ आदि ब्राह्मण जो विधि जाननेवाले थे बहुत सा धन और सेना साथ ली और दान पुण्य करते हुए गृह के बाहर निकले। उस समय वहाँ के लोगों और खियों ने रामजी के ऊपर फूलों और कलियों की माला की, जैसे बरफ बरसती है वैसी ही वर्षा की और रामजी की मूर्ति हृदय में धर ली। इसी प्रकार रामजी वहाँ से ब्राह्मणों और निर्धनों को दान देते गङ्गा, यमुना, सरस्वती आदि तीर्थों में विधिपूर्वक स्नानकर पृथ्वी के चारों भारे पर्यटन करते रहे। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में दान किया और समुद्र के चारों भोर स्नान किया। सुमेरु और हिमालय पर्वत पर भी गये और शालग्राम, बद्री, केदार आदि में स्नान और दर्शन किये। ऐसे ही सब तीर्थस्नान, दान, तप, ध्यान और विधिसंयुक्त यात्रा करते करते एक वर्ष में अपने नगर में आये।

इति श्रीयोगवाशिष्ठवैराग्यप्रकरणेतीर्थयात्रावर्णनं नाम दितीयस्सर्गः॥२॥

वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जब रामजी यात्रा करके अपनी अयोध्यापुरी में आये तो नगरवासी पुरुष और स्त्रियों ने फूल और कली की वर्षा की, जय जय शब्द मुख से उच्चारने लगे और बड़े उत्साह को