पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८१

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उत्पत्ति प्रकरण।

तो उससे जो शेष रहेगा सो चिदाकाश है। हे लीले! यहाँ जो जीव विचरते हैं सो पृथ्वी के आश्रय हैं और पृथ्वी आकाश के आश्रय है, इससे ये सब जीव जो विचरते हैं सो भूताकाश के आश्रय विचरते हैं और वित्त जिसके आश्रय से क्षण में देश देशान्तर भटकता है सो चिदाकाश है। हे लीले! जब दृश्य का अत्यन्त प्रभाव होता है तब परमपद की प्राप्ति होती है सो चिरकाल के अभ्यास से होती है और मेरा यह वर है कि तुझको शीघ्र ही प्राप्त हो। हे रामजी! जब इस प्रकार कहकर ईश्वरी अन्तर्धान हो गई तब लीला रानी निर्विकल्प समाधि में स्थित हुई और देह का अहङ्कार त्याग कर चित्त सहित पक्षी के समान अपने गृह से उड़कर एक क्षण में आकाश को पहुंची जो नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा परमशान्तिरूप और सबका अधिष्ठान है उसमें जाकर भर्ती को देखा। रानी स्पन्दकल्पना ले गई थी उससे अपने आप को वहाँ देखा और बहुत मण्डलेश्वर भी सिंहासनों पर बैठे देखे। एक बड़े सिंहासन पर बैठे अपने भर्ती को भी देखा जिसके चारों ओर जय जय शब्द होता था। उसने वहाँ बड़े सुन्दर मन्दिर देखे और देखा कि राजा के पूर्व दिशा में अनेक ब्राह्मण ऋषीश्वर और मुनीश्वर बैठे हैं और बड़ी धनि से पाठ करते हैं। दक्षिण दिशा में अनेक सुन्दरी स्त्रियाँ नाना प्रकार के भूषणों सहित बैठी हुई हैं। उत्तरदिशा में हस्ती, घोड़े, स्थ, प्यादे और चारों प्रकार की अनन्त सेना देखी और पश्चिम में मण्डलेश्वर देखे। चारों दिशा में मण्डलेश्वर आदि उस जीव के आश्रय विराजते देखके आश्चर्य में हुई। फिर नगर और प्रजा देखी कि सब अपने व्यवहार में स्थित हैं और राजा की सभा में जा बैठी पर रानी सबको देखती थी और रानी को कोई न देखता था। जैसे और के संकल्पपुर को और नहीं देखता वैसे ही रानी को कोई देख न सके। तब रानी ने उसका अन्तःपुर देखा जहाँ ठाकुर द्वारे बने हुए देवताओं की पूजा होती थी। वहाँ की गन्ध, धूप और पवन त्रिलोकी को मग्न करती थी और राजा का यश चन्द्रमा की नाई प्रकाशित था! इतने में पूर्व दिशा से हरकारे ने आके कहा कि हे गजन्! पूर्व दिशा में और किसी राजा को क्षोभ हुआ। फिर उत्तर दिशा से हर