पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८४

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योगवाशिष्ठ।

का किया हो तो कृत्रिम हो पर वह तो आकाशरूप पृथ्वी आदिक तत्त्वों से रहित है। जो समवाय कारण ही न हो तो उसका निमित्तकारण कैसे हो। इससे तेरे भर्त्ता का सर्ग अकारण है। लीला ने वा हे देवि! उस सर्ग की जो संस्काररूप स्मृति है सो कारण क्यों न हो? देवी बोली, हे लीले! स्मृति तो कोई वस्तु नहीं है। स्मृति प्राकाशरूप है। स्मृति संकल्प का नाम है सो वह भी संकल्प आकाशरूप है और कोई वस्तु नहीं वह मनोराजरूप है इससे उसकी सत्ता भी कुछ नहीं है केवल आभासरूप है। लीलाबोली, हे महेश्वरि! यदि वह संकल्पमात्र आकाशरूप है तो जहाँ हम तुम बैठे हैं वह भी वही है तो दोनों तुल्य हैं। देवी बोली, हे लीले! जैसा तुम कहती हो वैसा ही है। अहं, वं, इदं, यह, वह सम्पूर्ण जगत् आकाशरूप है और भ्रान्तिमात्र भासता है। उपजा कुछ नहीं सब आकाशमात्र है और स्वरूप से इनका कुछ सद्भाव नहीं होता। जो पदार्थ सत्य न हो उसकी स्मृति कैसे सत् हो? लीला बोली हे देवि! अमूर्ति मेरा भा था सो मूर्तिवत् हुआ और उसको जगत् भासने लगा सो कैसे भासा? उसका स्मृति कारण है वा किसी और प्रकार से, यह मेरे दृश्यभ्रम निवृत्ति के निमित्त मुझको वही रूप कहो। देवी बोली, हे लीले! यह और वह सर्ग दोनों भ्रमरूप हैं। जो यह सत् हो तो इसकी स्मृति भी सत् हो पर यह जगत् असतरूप है। जैसे यह भ्रम तुमको भासा है सो सुनो। एक महाचिदाकाश है जिसका किञ्चन चिद्अणु है और उसके किसी अंश में जगरूपी वृक्ष है। सुमेरु उस वृक्ष का थम्भ है, सप्तलोक डाली हैं, आकाश शाखें हैं, सप्तसमुद्र उसमें रस है और तीनों लोक फल हैं। सिद्ध, गन्धर्व, देवता, मनुष्य और दैत्यरूप मच्छर उसमें रहते हैं और तारागण उसके फूल हैं। उसी वृक्ष के किसी छिद्र में एक देश है और उसमें एक पर्वत है जिसके नीचे एक नगर बसता है। वहाँ एक नदी का प्रवाह चलता है और वशिष्ठ नाम एक ब्राह्मण जो बड़ा धार्मिक था वहाँ सदा अग्निहोत्र करता था। धन, विद्या, पराक्रम और कर्मों में वशिष्ठजी ऋषीश्वरों के समान था परन्तु ज्ञान में भेद था। जैसा खेचर वशिष्ठ का ज्ञान है वैसा भूचर वशिष्ठ का