पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८६

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योगवाशिष्ठ।

जब मेरा भर्त्ता मृतक हो तब इसका जीव बाह्य न जावे। तब मैंने कहा ऐसा ही होगा। हे लीले! जब बहुत काल व्यतीत हुआ तो ब्राह्मण मृतक हुआ पर उसका जीव मन्दिर में ही रहा। जैसे मन्दिर में आकाश रहता है वैसे ही मन्दिर में रहा। हे लीले! जब वह आकाश रूप हो गया तब उसकी पुर्यष्टक में जो राजा का दृढ़ संकल्प था इसलिये जैसे बीज से अंकुर निकल आता है वैसे ही वह संकल्प प्रान फुरा और उससे वह अपने को त्रिलोकी का राजा और परम सौभाग्य सम्पन्न देखने लगा कि दशों दिशा मेरे यश से पूर्ण हो रही हैं; मानो यशरूपी चन्द्रमा की यह पूर्णमासी है। जैसे प्रकाश अन्धकार को नाश करता है वैसे ही वह शत्रुरूपी अन्धकार का नाशकर्ता प्रकाश हुआ और ब्राह्मणों के चरणों का सिंहासन हुआ अर्थात् ब्राह्मणों को बहुत पूजने लगा। निदान अर्थियों को कल्पवृक्ष और स्त्रियों को कामदेव इत्यादिक जो सात्विकी और राजसी गुण हैं उनसे सम्पन्न हुआ। पर उसकी स्त्रि उसको मृतक देखके बहुत शोकवान हुई। जैसे जेठ आषाढ़ की मञ्जरी सूख जाती है वैसे ही वह सूख गई और शरीर को छोड़के अन्तवाहक शरीर से अपने भर्ता को वैसे ही जा मिली जैसे नदी समुद्र को जा मिलती है और ब्राह्मण के पुत्र धन संयुक्त अपने गृह में रहे। उस ब्राह्मण को मृतक हुए अब आठ दिन हुए हैं कि वही वशिष्ठ ब्राह्मण तेरा भर्ती राजा पद्म हुआ। अरुन्धती उसकी स्त्री तू लीला हुई। जितना कुछ आकाश, पर्वत, समुद्र, पृथ्वी और त्रिलोकी है सोवशिष्ठ ब्राह्मण के अन्तःपुर में एक कोने में स्थित है। वहाँ तुमको पाठ दिन व्यतीत हुए हैं और अभी सूतक भी नहीं गया पर यहाँ तुमने साठ सहस्र वर्ष राज्य करके नाना प्रकार के सुन्दर भोग भोगे हैं। हे लीले! जिस प्रकार तूने जन्म लिया है सो मैंने सब कहा है। पर वह क्या है? सब भ्रममात्र है। जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो आभासमात्र है संकल्प से फुरता है वास्तव से कुछ नहीं है। हे लीले! जो यह जगत् सत् न हुआ तो इसकी स्मृति कैसे सत्य हो। तुम हम और सब उसी ब्राह्मण के मन्दिर में स्थित हैं। लीला बोली, हे देवि! तुम्हारे वचन को मैं असत् कैसे कहूँ? पर जो तुम कहती हो कि उस ब्राह्मण