पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८८

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योगवाशिष्ठ।

है। जहाँ चिद्अणु है वहाँ जगत् भी है परन्तु क्या रूप है, आभासरूप है। जैसे वह आकाशरूप है वैसे ही यह जगत् भी आकाशरूप है। जिस प्रकार यह चेतता है उस प्रकार हो भासता है इससे सङ्कल्पमात्र है। जैसे स्वप्नपुर भासता है और जैसे सङ्कल्पनगर होता है वैसे ही यह जगत् है। जैसे मरुस्थल की नदी के तरङ्ग भासते हैं वैसे ही यह जगत् भासता है। इससे इसकी कल्पना त्याग दो। इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! उस वशिष्ठ ब्राह्मण को मरे आठ दिन बीते हैं और हमको यहाँ साठ सहस्र वर्ष बीते हैं यह वार्ता कैसे सत् जानिये? थोड़े काल में बड़ा काल कैसे हुआ? देवी बोली, हे लीले! जैसे थोड़े देश में बहुत देश आते हैं वैसे ही काल में बहुत काल भी आता है। महन्ता ममता आदिक जितना कुछ जगत् है सो आभासमात्र है उसे क्रम से सुन। जब जीव मृतक होता है तब मूर्च्छा होती है और फिर मूर्च्छा से चैतन्यता फुर आती है, उसमें यह भासता है कि यह आधार है तो यह आधेय है, यह मेरा हाथ है; यह मेरा शरीर है; यह मेरा पिता है; इसका मैं पुत्र हूँ; अब इतने वर्ष का मैं हुआ; ये मेरे बान्धव है; इनके साथ मैं स्नेह करता हूँ; यह मेरा गृह है और यह मेरा कुल चिरकाल का चला पाता है। मरने के अनन्तर इतने क्रम को देखता है। हे लीले! जिस प्रकार वह देखता है वैसे ही यह भी जान। एक क्षण में और का और भासने लगता है। यह जगत् चैतन्य का किञ्चन है। जैसे चैतन संवित् में चैत्यता होती है वैसे ही यह जगद भी भासता है और जैसे स्प्वन में द्रष्टा, दर्शन, दृश्य तीनों भासते हैं वैसे ही आत्मसत्ता में यह जगत् किञ्चन होता है और भ्रम से भासता है, वास्तव में नानात्व कुछ हुआ नहीं। जैसे स्वप्न में कारण बिना नाना प्रकार का जगत्भासता है वैसे ही परलोक में नाना प्रकार का जगत् कारण बिना ही भासता है सो आकाशरूप है और मन के भ्रम से भासता है वैसे ही यह जगत् भी मन के भ्रम से भासता है। स्वप्न जगत्, परलोक जगत् और जाग्रत जगत् में भेद कुछ नहीं। जैसे वह भ्रममात्र है वैसे ही यह भ्रममात्र है—वास्तव में कुछ उपजा नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग कुछ वास्तव नहीं वैसे ही आत्मा