पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१८९

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उत्पत्ति प्रकरण।

में जगत् कुछ वास्तव नहीं असत् ही सत् की नाई भासता है। किसी कारण से उपजा नहीं इस कारण अविनाशी है। हे लीले! जैसे चत्योन्मुखत्व हुए चेतन आकाशरूप भासता है वैसे ही चैत्यता में चेतन आकाश है क्योंकि कुछ हुआ नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग होता है तो वह तरङ्ग कुछ जल से इतर है नहीं, जल ही है, वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ इतर नहीं बल्कि जल में तरङ्ग की नाई भी आत्मा में जगत् नहीं। जैसे शश के शृङ्ग असत् हैं वैसे ही जगत् असत् है—कुछ उपजा नहीं। हे लीले! जब जीव मृतक होता है तब उसको देश, काल, किया, उत्पत्ति, नाश, कुटुम्ब, शरीर, वर्ष आदिक नानारूप भासते हैं पर वे सब आभासरूप हैं। जिस प्रकार क्षण २ में इतने भास आते हैं वैसे ही कारण बिना यह जगत् भासित है तो दृश्य और द्रष्टा भी कोई न हुआ। देश काल क्रिया द्रव्य इन्द्रियाँ, प्राण, मन और बुद्धि सब भ्रम से भासते हैं। आत्मा उपाधि से रहित आकाशरूप है और उसके प्रमोद से जगत्भ्रम उदय हुआ है। हे लीले! भ्रम में क्या नहीं होता है जैसे एक रात्रि में हरिश्चन्द्र को दादशवर्ष भ्रम से भासे थे वैसे ही यहाँ भी थोड़े काल में बहुत काल भासा है। दो अवस्था में और का और भासता है। स्वप्न में और का और भासता है और उन्मत्तता से भी और का और भासता है। प्रभोक्ता आपको भोक्ता मानता है और भ्रम से उत्साह और शोक को इकट्ठा देखता है। किसी को उत्साह होता है और स्वप्न में मृतक भाव शोक को देखता है। विछुड़ा हुआ स्वप्न में मिला देखता है और जो मिला सो आपको विछुड़ा जानता है। काल और है। भ्रम करके और काल देखता है। इससे देखो यह सब भ्रमरूप है। जैसे भ्रम से यह भासता है, वैसे ही यह जगत् भी भ्रम से भासता है परन्तु ब्रह्म से इतर कुछ नहीं। इससे न बन्ध है और न मोक्ष है। जैसे मिरच में तीक्ष्णता है वैसे ही आत्मा में जगत् है। जैसे थम्भे में पुतलियाँ होती हैं वैसे ही आत्मा में जगत् है और जैसे थम्भे में पुतलियाँ कुछ हुई नहीं ज्यों का त्यों हैं और शिल्पी के मन में पुतलियाँ हैं वैसे ही ब्रह्म में जगत् है नहीं, पर मनरूपी शिल्पी में जगत् रूपी पुतलियाँ कल्पी हैं। आत्मसत्ता