पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९

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वैराग्य प्रकरण।

प्राप्त भये जैसे इन्द्र का पुत्र स्वर्ग में आता है वैसे ही रामचन्द्रजी अपने घर में आये। रामजी ने पहिले राजा दशरथ और फिर वशिष्ठजी को प्रणाम किया और सब सभा के लोगों से यथायोग्य मिलकर अन्तःपुर में माँ कौशल्या आदि माताओं को प्रणाम किया भोर भाई, बन्धु भादि कुटुम्ब से मिले। हे भारद्वाज! इस प्रकार रामजी के माने का उत्साह सात दिन पर्यन्त होता रहा। उस अन्तर में कोई मिलने भावे उससे मिलते भोर जो कोई कुछ लेने आवे उनको दान पुण्य करते थे अनेक बाजे बजते थे और भाट आदि बन्दीजन स्तुति करते थे। तदनन्तर रामजी का यह आचरण हुआ कि प्रातःकाल उठके स्नान सन्ध्यादिक सत्कर्म कर भोजन करते और फिर भाई बन्धुनों से मिलकर अपने तीर्थ की कथा और देवदार के दर्शन की वार्ता करते थे। निदान इसी प्रकार उत्साह से दिनरात बिताते थे। एक दिन रामजी प्रातः काल उठके अपने पिता राजा दशरथ के निकट गये जिनका तेज चन्द्रमा के समान था। उस समय वशिष्ठादिक की सभा बैठी थी। वहाँ वशिष्ठजी के साथ कथावार्ता की। राजा दशरथ ने उनसे कहा कि हे रामजी! तुम शिकार खेलने जाया करो। उस समय रामजी की अवस्था सोलह वर्ष से कई महीने कम थी। लक्ष्मण और शत्रुघ्न भाई साथ थे, पर भरतजी नाना के घर गये थे निदान उन्हीं के साथ नित चर्चा हुलास कर और स्नान, सन्ध्यादिक नित्य कर्म और भोजन करके शिकार खेलने जाते थे। वहाँ जो जीवों को दुःख देनेवाले जानवर देखते उनको मारते और अन्य लोगों को प्रसन्न करते थे। दिनको शिकार खेलने जाते और रात्रि को बाजे निशान सहित अपने घर में भाते थे। इसी प्रकार बहुत दिन बीते। एक दिन रामजी बाहर से अपने अन्तःपुर में भाकर शोकसहित स्थित भये। हे भारदाज! राजकुमार अपनी सब चेष्टा और इन्द्रियों के रससंयुक्त विषयों को त्याग बैठे और उनका शरीर दुर्बल होकर मुख की कान्ति घट गई। जैसे कमल सूखकर पीतवर्ण हो जाता है वैसे ही रामजी का मुख पीला हो गया जैसे सूखे कमल पर भँवरे बैठे हों वैसे ही सूखे मुखकमल पर नेत्ररूपी भवरे भासने लगे। जैसे शरत्काल में ताल निर्मल होता है वैसे