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योगवाशिष्ठ।

ज्यों की त्यों नित्य, शुद्ध, अज, अमर अपने आपमें स्थित है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मण्डपाख्याने परमार्थप्रतिपादन
न्नाम चतुर्दशस्सर्गः॥१४॥

देवी बोली हे लीले! जब जीव को मृत्यु से मूर्च्छा होती है तब शीघ्र ही उसको फिर कुछ जन्म और देश, काल, क्रिया, द्रव्य ओर अपना परिवार भादि नाना प्रकार का जगत् भास आता है पर वास्तव में कुब नहीं-स्मृति भी असत् है। एक स्मृति अनुभव से होती है और एक स्मृति अनुभव बिना भी होती है पर दोनों स्मृति मिथ्या हैं। जैसे स्वप्न में अपना देह देखता है तो वह अनुभव असत् है, क्योंकि वह कुछ अपने मरने की स्मृति से नहीं आसा और उस मरण की स्मृति भी असत् है। स्वप्न में कोई पदार्थ देखा तो जाग्रत में—उसको स्मरण करना भी असत् है, क्योंकि वास्तव में कुछ हुआ नहीं। इससे यह जगत् अकारणरूप है और जो है सो चिदाकाश ब्रह्मरूप है। न कुछ विदूरथ की सृष्टि सत् है और न यह सृष्टि सत् है—सव सङ्कल्पमात्र है। इतना सुन लीला ने पूछा हे देवि! जो यह सृष्टि भ्रममात्र है तो वह जो विदूरथ की सृष्टि है सो इस सृष्टि के संस्कार से हुई है और यह सृष्टि उस ब्राह्मण और ब्राह्मण की स्मृति संस्कार से हुई है तो ब्राह्मण और ब्राह्मणी की सृष्टि किसकी स्मृति से हुई है। देवी बोली, हे लीले! वह जो वशिष्ठ ब्राह्मण की सृष्टि है सो ब्राह्मण के संकल्प से हुई और ब्राह्मण ब्रह्मा में फुरा है, परन्तु वास्तव में ब्रह्मा भी कुछ नहीं हुआ तो उसको सृष्टि क्या कहूँ। यह जितना कुछ सृष्टि है सो उसी ब्राह्मण के मन्दिर में है, वास्तव से कुछ हुई नहीं सब सङ्कल्परूप है और मन के फुरने से भासती है। जैसे-जैसे सङ्कल्प फुरता है वैसे ही वैसे होकर भासता है। यह सृष्टि जो तेरे भर्ता को भासि भाई है वह सङ्कल्प में भासि आई है। थोड़े काल में बहुत भ्रम होकर भासता है। लीला ने पूछा, हे देवि! जहाँ ब्राह्मण को मृतक हुए आठ दिन व्यतीत हुए हैं उस सृष्टि को हम किस प्रकार देखें? देवी बोली, हे लीले! जब तू योगाभ्यास करे तब देखे। अभ्यास बिना देखने की सामर्थ्य न होगी, क्योंकि वह सृष्टि चिदाकाश में