पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९३

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उत्पत्ति प्रकरण।

जगत् भ्रम शान्त हो जावेगा। भ्रम भी कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि देह आदिक भ्रम भी कुछ नहीं हुआ। जैसे रस्सी के जाने से साँप का प्रभाव विदित होता है वैसे ही आत्मा के जाने से देहादिक का अत्यन्त प्रभाव हो जाता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे विश्रान्तिवर्णनन्नाम
पञ्चदशस्सर्गः॥१५॥

देवी बोली, हे लीले! जितने कुछ शरीर तुझको भासते हैं सो सब स्वप्नपुर की नाई हैं। जैसे स्वप्न में शरीर भासता है, पर जब निज स्वरूप में स्मृति होती है तब स्वप्न का शरीर सत्य नहीं भासता। जैसे सङ्कल्प के त्यागने से संकल्परूप शरीर नहीं भासता। वैसे ही बोधकाल में यह शरीर भी नहीं भासता। जैसे मनोराज के त्यागने से मनोराज का शरीर नहीं भासता वैसे ही यह शरीर भी नहीं भासता। जब स्वरूप का ज्ञान होगा तब यह भी वास्तव न भासेगा। जैसे स्वरूप स्मरण होने पर स्वाम शरीर शान्त होता है वैसे ही वासना के शान्त होने पर जाग्रत् शरीर भी शान्त हो जाता है। जैसे स्वप्न का देह जागने से असत् होता है वैसे ही जाग्रत् शरीर की भावना त्यागने से यह भी असत् भासता है। इसके नष्ट होने पर अन्तवाहक देह उदय होवेगा। जैसे स्वप्न में राग द्वैश होता है और जब पदार्थों की वासना बोध से निर्वीज होती है तब उनसे मुक्त होता है वैसे ही जिस पुरुष की वासना जाग्रत पदार्थों में नष्ट हुई है सो पुरुष जीवन्मुक्त पद को प्राप्त होता है। और यदि उसमें फिर भी वासना दृष्ट भावे तो वह वासना भी निर्वासना है। सो सर्व कल्प-नामों से रहित है उसका नाम सत्तासामान्य है। हे लीले! जिस पुरुष ने वासना रोकी है और जाननिद्रा से आवर्या हुआ है उसको सुषुप्तिरूप जान। उसकी वासना सुषुप्ति है और जिसकी वासना प्रकट है और जाग्रतरूप से विचरता है उसको अधिक मोह से आवर्या जानिये। जो पुरुष चेष्टा करता दृष्टि आता है और जिसकी अन्तःकरण की वासना नष्ट हुई है उसको तुरीया जान। हे लीले! जो पुरुष प्रत्यक्ष चेष्टा करता है और अन्तःकरण की वासना से रहित है वह जीवन्मुक है। जिस