पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९४

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योगवाशिष्ठ।

पुरुष का चित्त सत्पद को प्राप्त हुआ है उसको जगत् की वासना नष्ट हो जाती है और जो वासना फुरती भासती है तो भी सत्य जानके नहीं फुरती। जब शरीर की वासना नष्ट होती है तब आधिभौतिकता नष्ट हो जाती है और अन्तवाहकता आन प्राप्त होती है। जैसे बरफ की पुतली सूर्य के तेज से जलरूप हो जाती है वैसे ही आदिभौतिकता क्षीण होकर अन्तवाहकता प्राप्त होती है। जब अन्तवाहकता प्राप्त होती है तब शरीर आभासमय चित्तरूप होता है और अपने जन्मान्तरों, व्यतीत सृष्टि का सब ज्ञान हो आता है। तब वह जहाँ जाने की इच्छा करता है वहाँ जा प्राप्त होता है और यदि किसी सिद्ध के मिलने अथवा किसी के देखने की इच्छा करे सो सब कुछ सिद्ध होता है, परन्तु अन्तवाहक विना शक्ति नहीं होती। जब इस देह से तेरा अहंभाव उठेगा तब सब जगत् तुझको प्रत्यक्ष आसेगा। हे लीले! जब आधिभौतिक शरीर की वासना नष्ट होती है तव अन्तवाहक देह होती है और जब अन्तवाहक में वृत्ति स्थित होती है तब और के संकल्प की सृष्टि भासती है। इससे तू वासना घटाने का यत्न कर। जब वासना नष्ट होगी तब तूजीवन्मुक्त पद को प्राप्त होगी। हे लीले! जब तक तुझको पूर्ण बोध नहीं प्राप्त होगा तब तू अपनी इस देह को यहाँ स्थापन कर वह सृष्टि चलकर देख। जैसे अन्तवाहक शरीर से मांसमय स्थूल देह का व्यवहार नहीं सिद्ध होता वैसे ही स्थूल देह से सूक्ष्म कार्य नहीं होता। इस सेतू अन्तवाहक शरीर का अभ्यास कर। जब अभ्यास करेगी तब वह सृष्टि देखने को समर्थ होगी हे लीले! जैसे अनुभव में स्थित होती है सो मैंने तुझसे कहीं। यह वार्ता बालक भी जानते हैं कि यह वर और शाप की नाई नहीं है। जब अपना आप ही अभ्यास करेगी तब बोध की प्राप्ति होगी। हे लीले! सब जगत् अन्तवाहकरूप है अर्थात् सङ्कल्परूप और अबोधरूप है। संकल्प के अभ्यास से आधिभौतिक उत्पन्न हुआ है, इससे संसार की वासना दृढ़ हुई है और जन्म मरण आदि विकार चित्त में भासते हैं। जीव न मरता है और न जन्मता है। जैसे स्वप्न में जन्म मरण भासते हैं और जैसे संकल्प से भ्रम भासता है वैसे ही जन्म मरण भ्रम