पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९७

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उत्पत्ति प्रकरण।

नाओं को त्यागके और अङ्गों को सङ्कोचकर ऐसी समाधि में स्थित भई मानो रत्न के थम्भ से पुतलियाँ उत्कीर्ण किये स्थित हैं। अन्तःपुर भी उनके प्रकाश से प्रकाशमान हुआ और वे ऐसी शोभा देती थीं मानो कागज के ऊपर मूर्तियाँ लिखी हैं। इस प्रकार सब दृश्य कल्पना को त्याग के वे निर्विकल्प समाधि में स्थित हुई। जैसे कल्पवृक्ष की लता दूसरी ऋतु के आने से अगले रस को त्याग के दूसरी ऋतु के रस को अङ्गीकार करती है वैसे ही वे सब दृश्यभ्रम को त्याग के आत्मतत्त्व में स्थित हुई और अहंसत्ता से आदि से लेकर उनका दृश्यभ्रम शान्त हो गया। दृश्यरूपी पिशाच के शान्त होने पर जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है वैसे ही वे निर्मलभाव को प्राप्त हुई। हे रामजी! यह जगत् शश के शृङ्ग की नाई असत् है। जो आदि न हो अन्त भी न रहे और वर्तमान में दृष्टि आवे यह असत् जानिये। जैसे मृगतृष्णा का जल असत्य है वैसे ही वह जगत् भी असत्य है। ऐसे जब स्वभावसत्ता उनके हृदय में स्थित हुई तव अन्य सृष्टि के देखने का जो सङ्कल्प था सो आन फुरा। उस फुरने से वे आकाशरूप देह से चिदाकाश में उड़ीं और सूर्य और चन्द्रमा के मण्डलों को लाँघकर दूर से दूर जाकर अनन्त योजनपर्यन्त स्थान लाँधे। फिर भूतों की सृष्टि देखी उसमें प्रवेश किया।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलाविज्ञान देहाकाशमागमन
न्नाम सप्तदशस्सर्गः॥१७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार परस्पर हाथ पकड़कर वे दूर से दूर गई मानों एक ही आसन पर दोनों चली जाती हैं। जहाँ मेघों के स्थान और अग्नि और पवन के वेग नदियों की नाई चलते थे और जहाँ निर्मल आकाश था वहाँ से भी आगे गई। कहीं चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश ही न था और कहीं चन्द्रमा और सूर्य प्रकाशमान थे कहीं देवता विमानों पर आरूढ़ थे, कहीं सिद्ध उड़ते थे और कहीं विद्याधर, किन्नर और गन्धर्व गान करते थे। कहीं सृष्टि उत्पन्न होती; कहीं प्रलय होती और कहीं शिखाधारी तारे उपद्रव करते उदय हुए थे। कहीं प्राणी अपने व्यवहार में लगे हुए; कहीं अनेक महापुरुष ध्यान में स्थित;