पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/१९९

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उत्पत्ति प्रकरण।

कर से प्रकाशता है। इसका विस्तार इस प्रकार है कि एक लाख योजन जम्बूदीप है और उसके परे दुगुना खारा समुद्र है। जैसे हाथ का कङ्कण होता है वैसे ही उस जल से वह द्वीप आवरण किया है। उससे और दुगुना शाकद्वीप है और उससे दुगुने क्षीरसमुद्र से वेष्टित है। उसके आगे उससे दुगुनी पृथ्वी है जिसका नाम कुशदीप है और उससे दूने घृत के समुद्र से वेष्टित है। उसके आगे उससे दूनी पृथ्वी का नाम कौंचदीप है वह अपने से दूने दधि के समुद्र से वेष्टित है। फिर शाल्मलीदीप है और उससे दूना मधु का समुद्र उसके चारों ओर है। फिर प्लक्षदीप है उससे दूना इक्षुरस का समुद्र है। फिर उससे दूना पुष्करदीप है और उससे दूना मीठे जल का समुद्र उसे घेरे है। इस प्रकार सप्त समुद्र हैं। उससे परे दशकोटि योजन कञ्चन की पृथ्वी प्रकाशमान है और उससे आगे लोकालोक पर्वत हैं और उन पर बड़ा शून्य वन है। उससे परे एक बड़ा समुद्र है। समुद्र से परे दशगुणी अग्नि है; अग्नि से परे दशगुणी वायु है; वायु से परे दशगुणा आकाश है और आकाश से परे लक्ष योजन पर्यन्त घनरूप ब्रह्माण्ड का कन्ध है उसको देख के दोनों फिर आई।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने भूलोकगमनवर्णन
न्नामैकोनविंशस्सर्गः॥१९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वहाँ से फिर उन्होंने वशिष्ठ ब्राह्मण और अरुन्धती का मण्डल, ग्राम और नगर को देखा कि शोभा जाती रही; है। जैसे कमलों पर धूल की वर्षा हो और कमल की शोभा जाती रहे; जैसे वन को अग्नि लगे और वन लक्ष्मी जाती रहे; जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को पान कर लिया था और समुद्र की शोभा जाती रही थी; जैसे तेल और बाती के पूर्ण होने से दीपक के प्रकाश का प्रभाव हो जाता और जैसे वायु के चलने से मेघ का प्रभाव होता है वैसे ही ग्राम की शोभा का प्रभाव देखा। जो कुछ प्रथम शोभा थी सो सब नष्ट हो गई थी और दासियाँ रुदन करती थीं। तब लीला रानी को जिसने चिरकाल तप और ज्ञान का अभ्यास किया था, यह इच्छा उपजी