पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
योगवाशिष्ठ।

ही इच्छारूपी मल से रहित उनका चित्तरूपी ताल निर्मल हो गया और दिन पर दिन शरीर निर्बल होता गया। वह जहाँ बैठें वहीं चिन्तासंयुक्त बैठे रह जावें और हाथ पर चिबुक धरके बैठे। जब टहलुवे मन्त्री बहुत कहें कि हे प्रभो! यह स्नान सन्ध्या का समय हुआ है अब उठो तब उठकर स्नानादिक करें अर्थात् जो कुछ खाने पीने बोलने, चलने भोर पहिरने की क्रिया थी सो सब उन्हें विरस हो गई। तब लक्ष्मण भोर शत्रुघ्न भी रामजी को संशययुक्त देखके विरस प्रकार हो गये और राजा दशरथ यह वार्ता सुनके रामजी के पास आये तो क्या देखा कि रामजी महाकृश हो गये हैं। राजा ने इस चिन्ता से आतुर हो कि हाय हाय इनकी यह क्या दशा हुई रामजी को गोद में बैठाया और कोमल सुन्दर शब्दों से पूछने लगे कि हे पुत्र! तुमको क्या दुःख प्राप्त हुआ है जिससे तुम शोकवान हुए हो? रामजी ने कहा कि हे पिता! हमको तो कोई दुःख नहीं। ऐसा कहकर चुप हो रहे। जब इसी प्रकार कुछ दिन बीते तो राजा और सब स्त्रियाँ बड़ी शोक वान हुई। राजा राजमन्त्रियों से मिलकर विचार करने लगे कि पुत्र का किसी ठौर विवाह करना चाहिये और यह भी विचार किया कि क्या कारण है जो मेरे पुत्र शोकवान रहते हैं। तब उन्होंने वशिष्ठजी से पूछा कि हे मुनीश्वर! मेरे पुत्र शोकातुर क्यों रहते हैं? वशिष्ठजी ने कहा हे राजन्! जैसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश महाभून अल्पकार्य में विकारवान नहीं होते जब जगत् उत्पन्न और प्रलय होता है तब विकारवान होते हैं वैसे ही महापुरुष भी अल्पकार्य से विकारवान नहीं होते। हे राजन्! तुम शोक मत करो। रामजी किसी अर्थ के निमित्त शोकवान हुए होंगे; पीछे इनको सुख मिलेगा। इतना कह वाल्मीकिजी बोले हैं भारद्वाज! ऐसे ही वशिष्ठजी और राजा दशरथ विचार करते थे कि उसी काल में विश्वामित्र ने अपने यज्ञ के अर्थ राजा दशरथ के गृह पर पाकर द्वारपाल से कहा कि राजा दशरथ से कहो कि "गाधि के पुत्र विश्वामित्र बाहर खड़े हैं"। द्वारपाल ने पाकर राजा से कहा कि हे स्वामिन्! एक बड़े तपस्वी द्वार पर खड़े हैं और उन्होंने कहा है कि राजा दशरथ के पास जाके कहो कि