पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२००

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योगवशिष्ठ।

कि मुझे और देवी को मेरे बान्धव देखें। तब लीला के सत्संकल्प से उसके बान्धवों ने उनको देखकर कहा कि यह वनदेवी गौरी और लक्ष्मी आई हैं इनको नमस्कार करना चाहिए। वशिष्ठ के बड़े पुत्र ज्येष्ठशर्मा ने फूलों से दोनों के चरण पूजे और कहा, हे देवि! तुम्हारी जय हो। यहाँ मेरे पिता और माता थे, अब वह दोनों काल के वश स्वर्ग को गये हैं इससे हम बहुत शोकवान् हुए हैं। हमको त्रैलोक शून्य भासते हैं और हम सब रुदन करते हैं। वृक्षों पर जो पक्षी रहते थे सो भी उनको मृतक देख के वन को चले गये; पर्वत की कन्दरा से पवन मानों रुदन करता आता है, और नदी जो वेग से आती है और तरङ्ग उछलते हैं मानों वह भी रुदन करते हैं। कमलों पर जो जल के कण हैं मानों कमलों के नयनो से रुदन करके जल चलता है और दिशा से जो उष्ण पवन आता है मानो दिशा भी उष्ण श्वासे छोड़ती है। हे देवियो! हम सब शोक को प्राप्त हुए हैं। तुम कृपा करके हमारा शोक निवृत्त करो, क्योंकि महापुरुषों का समागम निष्फल नहीं होता और उनका शरीर परोपकार के निमित्त है। हे रामजी! जब इस प्रकार ज्येष्ठशर्मा ने कहा तब लीला ने कृपा करके उसके शिर पर हाथ रक्खा और उसके हाथ रखते ही उसका सब ताप नष्ट हो गया। और जैसे ज्येष्ठआषाढ़ के दिनों में तपी हुई पृथ्वी मेघ की वर्षा होने से शीतल हो जाती है वैसे ही उसका अन्तःकरण शीतल हुमा। जो वहाँ के निर्धन थे वह उनके दर्शन करने से लक्ष्मीवान् होकर शान्ति को प्राप्त हुए और शोक नष्ट हो गया और सूखे वृक्ष सफल हो गये। इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! लीला ने अपने ज्येष्ठशर्मा को मातारूप होकर दर्शन क्यों न दिया, इसका कारण मुझसे कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्ध आत्मसत्ता में जो स्पन्द संवेदन हुई हे सो संवेदन भूतों का पिण्डाकार हो भासती है और वास्तव में आकाशरूप है भ्रान्ति से पृथ्वी आदिक भूत भासते हैं। जैसे बालक को छाया में भ्रम से वैताल भासता है वैसे ही संवेदन के फुरने से पृथिव्यादिक भूत भासते हैं। जैसे स्वप्न में भ्रम से पिण्डाकार भासते हैं और जगने पर आकाशरूप भासते हैं वेसे