पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९५
उत्पत्ति प्रकरण।

भ्रम के नष्ट होने पर पृथ्वी आदि भूत आकाशरूप भासते हैं। जैसे स्वप्न के नगर स्वप्नकाल में अर्थाकार भासते हैं और अग्नि जलाती है पर जागने से सब शून्य हो जाती है वैसे ही अज्ञान के निवृत्त होने से यह जगत् आकाशरूप हो जाता है। जैसे मूर्च्छा में नाना प्रकार के नगर; परलोक जगत; आकाश में तरुवरे और मुक्तमाला और नौका पर बैठे तट के वृक्ष चलते भासते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रम से भवानी को भासता है और ज्ञानवान को सब चिदाकाश भासता है—जगत् की कल्पना कोई नहीं फुरती। इससे लीला उसको पुत्रभाव और अपने को मातृभाव कैसे देखती। उसका अहं और मम भाव नष्ट हो गया था। जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट होता है वैसे ही लीला का अज्ञानभ्रम नष्ट हो गया था और सब जगत् उसको चिदाकाश भासता था। इस कारण वह अपने को माताभाव न जानती भई। जो उसमें कुछ ममत्व होता तो उसको माताभाव से देखती, परन्तु उसको यह अहं ममभाव न था इस कारण देवीरूप में दिखाया और शिर पर हाथ इसलिए रक्खा कि सन्तों का दयालु स्वभाव है। माता पुत्र की कल्पना उसमें कुछ न थी। केवल आत्मारूप जगत् उसको भासता था।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने सिद्धदर्शनहेतु
कथनन्नाम विंशतितमस्सर्गः॥२०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! फिर वहाँ से देवी और लीला दोनों अन्तर्धान हो गई। तब वहाँ के लोग कहने लगे कि वनदेवियों ने हमारे ऊपर बड़ी कृपा करके हमारे दुःख नाश किये और अन्तर्धान हो गई। हे रामजी! तब दोनों आकाश में आकाशरूप अन्तर्धान हुई और परस्पर संवाद करने लगीं। जैसे स्वप्न में संवाद होता है वैसे ही उनका परस्पर संवाद हुआ। देवी ने कहा, हे लीले! जो कुछ जानना था सो तूने जाना और जो कुछ देखना था सो भी देखा-यह सब ब्रह्म की शक्ति है। और जो कुछ पूछना हो सो पूछों। लीला बोली, हे देवि! मैं अपने भर्ता विदुरथ के पास गई तो उसने मुझे क्यों न देखा और मेरी इच्छा से ज्येष्ठशर्मा आदि ने मुझे क्यों देखा इसका कारण कहो?