पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०४

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योगवाशिष्ठ।

रही। फिर मैं बैल हुई; मुझको किसी दुष्ट ने खेती के हल में जोड़ा और उससे मैंने दुःख पाया। फिर मैं भ्रमरी भई और कमलों पर जाकर सुगन्ध लेती थी। फिर मृगी होकर चिर पर्यन्त वन में विचरी। फिर एक देश का राजा भई और सौ वर्ष पर्यन्त वहाँ सुख भोगे और फिर कछुये का जन्म लेकर, राजहंस का जन्म लिया। इसी प्रकार मैंने अनेक जन्मों को धारण करके बड़े कष्ट पाये। हे देवि! आठसौ जन्म पाकर मैं संसारसमुद्र में वासना से घटीयन्त्र की नाई भ्रमी हूँ। अब मैंने निश्चय किया है कि आत्मज्ञान बिना जन्मों का अन्त कदाचित् नहीं होता सो तुम्हारी कृपा से अब मैंने निःसंकल्प पद को पाया।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने जन्मान्तरवर्णन
न्नाम एकविंशतितमस्सर्गः॥२१॥

इतनी कथा सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वज्रसार की नाई वह ब्रह्माण्ड खप्पर जिसका अनन्त कोटि योजन पर्यन्त विस्तार था उसे ये दोनों कैसे लंघती गई? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वज्रसार ब्रह्माण्ड खप्पर कहाँ है और वहाँ तक कौन गया है? न कोई वज्रसार ब्रह्माण्ड है और न कोई लाँघ गया है सब आकाशरूप है। उसी पर्वत के ग्राम में जिसमें वशिष्ठ ब्राह्मण का गृह था उसी मण्डप आकाशरूप सृष्टि का वह अनुभव करता भया। हे रामजी! जब वशिष्ठ ब्राह्मण मृतक भया तब उसी मण्डपाकाश के कोने में अपने को चारों ओर समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राजा जानने लगा कि मैं राजा पद्म हूँ और अरुन्धती को लीला करके देखा कि यह मेरी स्त्री है। फिर वह मृतक हुआ तो उसको उसी आकाशमण्डप में और जगत् का अनुभव हुआ और उसने अपने को राजा विदूरथ जाना। इससे तुम देखो कि कहाँ गया और क्या रूप है? उसी मण्डप आकाश में तो उसको सृष्टि का अनुभव हुआ; इससे जो सृष्टि है वह उसी वशिष्ठ के चित्त में स्थित है। तब ज्ञप्तिरूप देवी की कृपा से अपने ही देहाकाश में लीला अन्तवाहक देह से जो आकाशरूप है उड़ी और ब्रह्माण्ड को लाँघ के फिर उसी गृह में भाई। जैसे स्वप्न से स्वप्नान्तर को प्राप्त हो वैसे ही देख आई। पर वह गई कहाँ और आई