पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०६

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योगवाशिष्ठ।

कहा कि हे देवि! तुम्हारी कृपा से अब मुझको पूर्व की स्मृति हुई जो कुछ इस देश में मैंने किया था सो प्रकट भासता है कि यहाँ एक बाह्मणी थी, उसका शरीर वृद्ध था और नाड़ियाँ देखती थीं और भर्ता को बहुत प्यारी और पुत्रों कीमाता थी वह मैं ही हूँ। हे देवि! मैं यहाँ देवतों और ब्राह्मणों की पूजा करती थी, यहाँ दूध रखती, यहाँ अनादिकों के वासन रखती थी, यहाँ मेरे पुत्र, पुत्रियाँ, दामाद और दौहित्र बैठते थे; यहाँ मैं बैठती थी और मृत्यों को कहती थी कि शीघ्र ही कार्य करो। हे देवि! यहाँ में रसोई करती थी और मेरा भर्ता शाक और गोबर ले आता था और सर्व मर्यादा कहता था। ये वृक्ष मेरे लगाये हुए हैं, कुछ फल मैंने इनसे लिये हैं और कुछ रहे हैं वे ये हैं। यहाँ मैं जलपान करती थी। हे देवि! मेरा भर्ता सब कमों में शुद्ध था पर आत्मस्वरूप से शून्य था। सब कर्म मुझको स्मरण होते हैं। यहाँ मेरा पुत्र ज्येष्ठशर्मा गृह में रुदन करता है। यह बेलि मेरे गृह में विस्तरी है और सुन्दर फूल लगे हैं। इनके गुच्छे छत्रों की नाई हैं और झरोखे बेलि से आवरे हुए हैं। यह मेरा मण्डप आकाश है, इससे मेरे भर्ता का जीव आकाश है। देवी बोली, हे लीले! इस शरीर के नाभिकमल से दश अंगुल ऊर्ध्व हृदयाकाश है, सो अंगुष्ठमात्र हृदय है, उसमें उसका संवित् आकाश है। उसमें जो राजसी वासना थी उससे उसके चारों समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राज्य फुर आया कि "मैं राजा हूँ" यहाँ उसे आठ दिन मृतक हुए बीते हैं और यहाँ चिरकाल राज्य का अनुभव करता है। हे देवि! इस प्रकार थोड़े काल में बहुत अनुभव होता है और हमारे ही मण्डप में वह सब पड़ा है। उसकी पुर्यष्टक में जगत् फुरता है उसमें ही राजा विदूरथ है इस राज्य के संकल्प से उसकी संवित् इसी मण्डप आकाश में स्थित है। जैसे आकाश में गन्ध को लेके पवन स्थित हो वैसे ही उसकी चेतन संवित् संकल्प को लेकर इसी मण्डपाकाश में स्थित है उसकी संवित इस मण्डप आकाश में है उस राजा की सृष्टि मुझको कोटि योजन पर्यन्त भासती है। यदि मैं पर्वत और मेघ अनेक योजन पर्यन्त लंघती जाऊँ तब भर्ता के निकट प्राप्त होऊँ और चिदाकाश की अपेक्षा से अपने