पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२०७

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उत्पत्ति प्रकरण।

पास ही भासती है। अब व्यवहार दृष्टि से वह कोटि योजन पर्यन्त है इससे चलो जहाँ मेरा भर्ता राजा विदूरथ है वह स्थान दूर है तो भी निश्चय से समीप है। इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर वे दोनों, जैसे खड्ग की धारा श्याम होती है, जैसे विष्णुजी का भङ्ग श्याम है, जैसे काजर श्याम होता और जैसे भ्रमरे की पीठ श्याम होती है वैसे ही श्याम मण्डपाकाश में पखेरू के समान अन्तवाहक शरीर से उड़ीं और मेघों और बड़े वायु के स्थान, सूर्य, चन्द्रमा और ब्रह्मलोक पर्यन्त देवतों के स्थानों को लंघकर इस प्रकार दूर से दूर गई और शून्य आकाश में ऊर्ध्व जाके ऊर्ध्व को देखती भई कि सूर्य और चन्द्रमा आदि कोई नहीं भासता। तब लीला ने कहा हे देवि! इतना सूर्य आदि का प्रकाश था वह कहाँ गया? यहाँ तो महाअन्धकार है: ऐसा अन्धकार है कि मानों सृष्टि में ग्रहण होता है। देवी बोली, हे लीले! हम महाआकाश में आई हैं। यहाँ अन्धकार का स्थान है, सूर्य आदि कैसे भासें? जैसे अन्धकूप में त्रसरेणु नहीं भासते वैसे ही यहाँ सूर्य चन्द्रमा नहीं भासते। हम बहुत ऊर्ध्व को भाई हैं। लीला ने पूछा, हे देवि! बड़ा आश्चर्य है कि हम दूर से दूर आई हैं जहाँ सूर्यादिकों का प्रकाश भी नहीं भासता इससे आगे अब कहाँ जाना है? देवी बोली, हे लीले! इसके आगे ब्रह्माण्ड कपाट आवेगा। वह बड़ा वज्रसार है और अनन्त कोटि योजन पर्यन्त उसका विस्तार है और उसकी धूलि की कणिका भी इन्द्र के वज्र समान हैं। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार देवी कहती ही थी कि आगे महावब्रसार ब्रह्माण्ड कपाट आया और अनन्त कोटि योजन पर्यन्त उसका विस्तार देखकर उसको भी वे लाँघ गई पर उन्हें कुछ भी क्लेश न भया क्योंकि जैसा किसी को निश्चय होता है वैसा ही अनुभव होता है। वह निरावरण आकाशरूप देवियाँ ब्रह्माण्ड कपाट को लाँघ गई। उसके परे दशगुणा जल का आवरण; उसके परे दशगुणा अग्नितत्त्व; उसके परे दशगुणा वायु; उसके परे दशगुणा आकाश और उसके परे परमाकाश है। उसका आदि मध्य और अन्त कोई नहीं। जैसे बन्ध्या के पुत्र की कथा की चेष्टा