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योगवाशिष्ठ

का आदि अन्त कोई नहीं होता वैसे ही परम आकाश है; वह नित्य, शुद्ध और अनन्तरूप है और अपने आपमें स्थित है। उसका अन्त लेने को यदि सदाशिव मनरूपी वेग से और विष्णुजी गरुड़ पर आरूढ़ होके कल्प, पर्यन्त धावें तो भी उसका अन्त न पावें और पवन अन्त लिया चाहे तो वह भी न पावें। वह तो आदि, मध्य और अन्त कलना से रहित बोधमात्र है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे पुनराकाशवर्णनन्नाम त्रयो
विंशतितमस्सर्गः॥२३॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब वे पृथ्वी, आप, तेज आदिक आवरणों को लाँघ गई तब परम आकाश उनको भासित हुआ। उसमें उनको धूलि की कणिका और सूर्य के त्रसरेणु के समान ब्रह्माण्ड भासे वह महाशून्य को धारनेवाला परम आकाश है और चिद्अणु जिसमें सृष्टि फुरती है वह ऐसा महासमुद्र है कि कोई उसमें अधः को जाता है और कोई ऊर्ध्व को जाता है कोई तिर्यक् गति को पाता है। हे रामजी! चित् संवित में जैसा जैसा स्पन्द फुरता है वैसा ही वैसा आकार हो भासता है; वास्तव में न कोई अधः है, न कोई ऊर्ध्व है, न कोई माता है और न कोई जाता है केवल आत्मसत्ता अपने पाप में ज्यों की त्यों स्थित है। फुरने से जगत् भासता है और उत्पन्न होकर फिर नष्ट होता है। जैसे बालक का संकल्प उपज के नष्ट हो जाता है वैसा ही चैतन्य संवित् में जगत फरके नष्ट हो जाता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! अधः और ऊर्ध्व क्या होते हैं; तिर्यक् क्यों भासते हैं और यहाँ क्या स्थित है सो मुझसे कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! परमाकाश-सत्ता आवरण से रहित शुद्ध बोधरूप है। उसमें जगत् ऐसे भासता है जैसे आकाश में भ्रान्ति से तस्वरे भासते हैं, उसमें अधः और ऊर्ध्व कल्पनामात्र है। जैसे हलों के बेंट के चौगिर्द चींटियाँ फिरती हैं और उनको मन में अधः अर्ध्व भासता है सो उनके मन में अधः ऊर्ध्व की कल्पना हुई है। हे रामजी! यह जगत् आत्मा का आभासरूप है। जैसे मन्दराचल पर्वत के ऊपर हस्तियों के समूह विचरते हैं वैसे ही आत्मा में अनेक जगत्