पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१

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वैराग्य प्रकरण।

विश्वामित्र आये हैं। हे भारदाज! जब इस प्रकार द्वारपाल ने आकर कहा तब राजा, जो मण्डलेश्वरों सहित बैठा था और बड़ा तेजवान् था सुवर्ण के सिंहासन से उठ खड़ा हुआ भोर पैदल चला। राजा के एक ओर वशिष्ठजी और दूसरी ओर वामदेवजी और सुभट की नाई मण्डलेश्वर स्तुति करते चले और जहाँ से विश्वामित्र दृष्टि पाये वहाँ से ही प्रणाम करने लगे। पृथ्वी पर जहाँ राजा का शीश लगता था वहाँ पृथ्वी हीरे और मोती से सुन्दर हो जाती थी। इसी प्रकार शीश नवाते राजा चले। विश्वामित्रजी काँधे पर बड़ी बड़ी जटा धारण किये और अग्नि के समान प्रकाशमान परम शान्तस्वरूप हाथ में बाँस की तन्द्री लिये हुए थे। उनके चरणकमलों पर राजा इस भाँति गिरा जैसे सूर्यपदा शिवजी के चरणारविन्द में गिरे थे। और कहा हे प्रभो! मेरे बड़े भाग्य हैं जो आपका दर्शन हुआ। आज मुझे ऐसा आनन्द हुआ जो आदि अन्त और मध्य से रहित अविनाशी है। हे भगवन्! माज मेरे भाग्य उदय हुए और मैं भी धर्मात्माओं में गिना जाऊँगा, क्योंकि आप मेरे कुशल निमित्त पाये हैं। हे भगवान्! आपने बड़ी कृपा की जो दर्शन दिया। आप सबसे उत्कृष्ट दृष्टि आते हैं, क्योंकि आप में दो गुण हैं-एक तो यह कि पाप क्षत्रिय हैं, पर ब्राह्मण का स्वभाव आप में है और दूसरे यह कि शुभ गुणों से परिपूर्ण हैं। हे मुनीश्वर! ऐसी किसी की सामर्थ्य नहीं कि क्षत्रिय से ब्राह्मण हो। आपके दर्शन से मुझे प्रति लाभ हुआ। फिर वशिष्ठजी विश्वामित्रजी को कण्ठ लगाके मिले और मण्डलेश्वरों ने बहुत प्रणाम किये। तदनन्तर राजा दशरथ विश्वामित्रजी को भीतर ले गये और सुन्दर सिंहासन पर बैठाकर विधिपूर्वक पूजा की और अर्घ्यपादार्चन करके प्रदक्षिणा की। फिर वशिष्ठजी ने भी विश्वामित्रजी का पूजन किया और विश्वामित्रजी ने उनका पूजन किया इसी प्रकार अन्योन्य पूजन कर यथायोग्य अपने अपने स्थानों पर बैठे तब राजा दशरथ बोले, हे भगवन्! हमारे बड़े भाग्य हुए जो आपका दर्शन हुआ। जैसे किसी को अमृत प्राप्त हो वा किसी का मरा हुआ बान्धव विमान पर चढ़के आकाश से आवे और उसके मिलने से