पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१२

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योगवाशिष्ठ।

चिरकाल स्वर्ग भोगेंगे। हे रामजी! स्वर्गलोक के भोग मन में चिन्तन करके शूरमा हर्षवान् होते थे और युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र चलाते भोर सहन करते थे और फिर युद्ध के सम्मुख धीरज धरके स्थित होते थे। जैसे सुमेरु पर्वत धैर्यवान और अचल स्थित है उससे भी अधिक वे धैर्यःवान थे। संग्राम में योधा ऐसे चूर्ण होते थे जैसे कोई वस्तु उखली में चूर्ण होती है परन्तु फिर सम्मुख होते और बड़े हाहाकर शब्द करते थे। हस्ती से हस्ती परस्पर युद्ध करते शब्द करते थे। हे रामजी! इसी प्रकार अनेक जीव नाश को प्राप्त हुए। जो शूरमा मरते थे उनको विद्याधरियाँ स्वर्ग को ले जाती थीं। निदान परस्परबड़े युद्ध हुए। खगवाले खगवाले से और त्रिशूलवाले त्रिशूलवाले से युद्ध करते। जैसा-जैसा शस्त्रकिसी के पास हो वैसे ही उसके साथ युद्ध करें और जब शस्त्र पूर्ण हो जावें तो मुष्टि के साथ युद्ध करें। इसी प्रकार दशों दिशाएँ युद्ध से परिपूर्ण हुई।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे लीलोपाख्याने रणभूमिवर्णनन्नाम षडविंशति
तमस्सर्गः॥२६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार बड़ा युद्ध हुआ तो गङ्गाजी के समान शूरमों के रुधिर का तीक्ष्ण प्रवाह चला और उस प्रवाह में हस्ती, घोड़े, मनुष्य, रथ सब बहे जाते थे और सेना नाश को प्राप्त होती जाती थी। हे रामजी! उस समय बड़ा क्षोभ उदय हुआ और राक्षस, पिशाचादिक तामसी जीव मांस भोजन करते और रुधिर पान करते आनन्दित होते थे। जैसे मन्दराचल पर्वत से धीरसमुद्र को क्षोभ हुआ था वैसे ही युद्धसंग्राम में योद्धाओं का क्षोभ हुआ और रुधिर का समुद्र चला। उसमें हस्ती, घोड़े, रथ और शूरमा तरङ्गों की नाई उछलते दृष्टि आते थे। स्थवालों से स्थवाले घोड़ेवालों से घोड़ेवाले; हस्तीवाले से हस्तीवाले और प्यादे से प्यादे युद्ध करते थे। हे रामजी! जैसे प्रलयकाल की अग्नि में जीव जलते हैं वैसे ही जो योधा रणभूमि में आवें सो नाश को प्राप्त हों। जैसे दीपक में पतङ्ग प्रवेश करता है और जैसे समुद्र में नदियाँ प्रवेश करती हैं वैसे ही रणभूमि में दशों दिशाओं के योद्धा प्रवेश करते थे। किसी का शीश काटा जावे