पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१४

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योगवाशिष्ठ।

अव युद्ध को शान्त करो, क्योंकि सूर्य अस्त हुआ है और योद्धा भी सब युद्ध करके थके हैं। रात्रि को सब आराम करें दिन को फिर युद्ध करेंगे। इससे आज्ञा फेरो कि भव युद्ध शान्त हो। तब मन्त्री ने दोनों सेना के मध्य में ऊँचे चढ़के वस्त्र फेरा कि अब युद्ध को शान्त करो, दिन को फिर युद्ध करेंगे। निदान दोनों सेनाओं ने युद्ध का त्याग किया और अपनी अपनी सेना में नौवत नगारे बजाने लगे और राजा विदुरथ भी अपने गृह में आ स्थित हुआ। जैसे शरत्काल में मेघों से रहित आकाश निर्मल होता है वैसे ही रण में संग्राम शान्त हुआ। रात्रि को राक्षस, पिशाच, गीदड़, भेड़िये और डाकिनी मांस का भोजन करने और रुधिर पान करने लगे। कितनों के शिर और अङ्ग काटे गये, पर जीते थे और पड़े हाय-हाय करते थे। वे निशाचरों को देखके डरने लगे और कितने लोगों ने भाई और मित्रों को देखा। हे रामजी! तब राजा विदूरथ ने स्वर्ण के मन्दिर में फूलों सहित चन्द्रमा की नाई शीतल और सुन्दर शय्या पर सब किवाड़ चढ़ा के विश्राम किया और मन्त्रियों के साथ विचार किया कि प्रातःकाल उठके ऐसे करेंगे। ऐसे विचार करके राजा ने शयन किया पर एक मुहूर्त पर्यन्त सोया और फिर चिन्ता से जग उठा। इधर इन दोनों देवियों ने आकाश से उतर के; जैसे सन्ध्याकाल में कमल के मुख मूंदते हैं और उनमें वायु प्रवेश कर जाता है वैसे ही मन्दिरों में सूक्ष्मरूप से प्रवेश किया। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! शरीर से परमाणु के रन्ध्र में देवियों ने कैसे प्रवेश किया वह तो कमल के तन्तु और बाल के अग्र से भी सूक्ष्म होते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! भ्रान्ति से जो आधिभौतिक शरीर हुआ है उस आधिभौतिक शरीर से सूक्ष्मरन्ध्र में प्रवेश कोई नहीं कर सकता परन्तु मनरूपी शरीर को कोई नहीं रोक सकता। हे रामजी! देवी और लीला का अन्तवाहक शरीर था उससे सूक्ष्म परमाणु के मार्ग से उनको प्रवेश करने में कुछ विचार न हुआ। जो उनका आधिभौतिक शरीर होता तो यत्न भी होता। जहाँ आधिभौतिक न हो वहाँ यत्न की शङ्का कैसे हो? हे रामजी! और भी सब शरीर चित्तरूपी हैं पर जैसा निश्चय