पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९०
योगवाशिष्ठ।

और तीसरा भूताकाश है। उनमें वास्तव एक चिदाकाश है और भावना करके भिन्न २ कल्पना हुई हैं। आदि शुद्ध अचेत, चिन्मात्र चिदाकाश में जो संवेदन फुरा है उसका नाम चित्ताकाश है और उसी में यह सम्पूर्ण जगत् हुआ है। हे रामजी! चित्तरूपी शरीर सर्वगत होकर स्थित हुआ है जैसा जैसा उसमें स्पन्द होता है वैसा ही वैसा हो के भासता है। जितने कुछ पदार्थ हैं उन सबों में व्याप रहा है; त्रसरेणु के अन्तर भी सूक्ष्मभाव से स्थित हुआ और आकाश के अन्तर भी व्याप रहा है। पत्र फल उसी से होते हैं, जल में तरङ्ग होके स्थित हुआ है; पर्वत के भीतर यही फरता, मेघ होके भी यही वर्षता और जल से बरफ भी यह चित्त ही होता है। अनन्त प्रकाश परमाणुरूप भीतर बाहर सर्वजगत् में यही है। जितना जगत है वह चित्तरूप ही है और वास्तव में आत्मा से अनन्त रूप है। जैसे समुद्र और तरङ्ग में कुछ भेद नहीं वैसे ही आत्मा और चित्त में कुछ भेद नहीं। जिस पुरुष को ऐसे प्रखण्डसत्ता आत्मा का अनुभव हुआ है और जिसका सर्ग के आदि में चित्त ही शरीर है और आधिभौतिकता को नहीं प्राप्त हुआ वह महाआकाशरूप है उसको पूर्व का स्वभाव स्मरण रहा है इस कारण उसका अन्तवाहक शरीर है। हे रामजी! जिस पुरुष को अन्तवाहकता में अहंप्रत्यय है उसको सब जगत् संकल्पमात्र भासता है वह जहाँ जाने की इच्छा करता है वहाँ जाता है। उसको कोई आवरण नहीं रोक सकता। जिसको आधिभौतिकता में निश्चय है उसको अन्तवाहक शक्ति नहीं होती। हे रामजी! सबही अन्तवाहकरूप हैं और भ्रम से अनहोता आधिभौतिकता देखते हैं। जैसे मरुस्थल में जल भासता है और जैसे स्वप्न में बन्ध्या के पुत्र का सद्भाव होता है वैसे ही आधिभौतिक जगत् भासता है। जैसे जल शीतलता से बरफ हो जाता है वैसे ही जीव प्रमाद से अन्तवाहक से आधिभौतिक शरीर होता है। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! चित्त में क्या है; कैसे होता है और कैसे नहीं होता; यह जगत् कैसे चित्तरूप है और क्षण में अन्यथा कैसे हो जाता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक एक जीव प्रति चित् होता है। जैसा जैसा चित् है वैसी ही वैसी