पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२१८

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योगवाशिष्ठ।

से जब जगत् भासता है तब जानता है कि मैं यहाँ उपजा हूँ। जैसे स्वप्न में अङ्गना के स्पर्श का अनुभव होता है वह मिथ्या है वैसे ही भ्रम से जो पापको उपजा देखता है वह भी मिथ्या है। हे रामजी! जहाँ यह जीव मृतक होता है वहीं जगत् भ्रम देखता है। वास्तव में जीव भी आकाशरूप है और जगत् भी आकाशरूप है। अजान से जीव आपको उपजा मानता है और नाना जगत्भ्रम देखता है कि यह नगर है, यह पर्वत है, ये सूर्य और चन्द्रमा हैं, ये तारागण हैं और जरा-मरण, आधि-व्याधि सङ्कट से व्याकुल होता है। वह भाव अभाव, भय, स्थूल, सूक्ष्म, चर-अचर, पृथ्वी, नदियाँ, भूत-भविष्य वर्तमान, क्षय-अक्षय और भूमि को भी देखता है और समझता है कि में उपजा हूँ, अमुक का पुत्र हूँ, यह मेरा कुल है, यह मेरी माता है, ये मेरे बांधव हैं, इतना धन हमको प्राप्त हुआ है इत्यादि अनेक वासनाजालों में दुःखी होता है और कहता है कि यह सुकृत है और यह दुष्कृत है; प्रथम मैं बालक था; अब मेरी यह अवस्था हुई और यह मेरा वर्ण है इत्यादि अनेक जगत् कल्पना हरएक जीव को उदय होती है। हे रामजी! संसाररूपी एक वृक्ष उगा है; चित्तरूपी उसका बीज है; तारागण उसके फूल हैं और चञ्चल मेघ पत्र हैं। जङ्गम, जीव, मनुष्य, देवता, दैत्यादिक पक्षी उस पर बैठनेवाले हैं और रात्रि उसके ऊपर धूलि है; समुद्र उसकी तलावड़ी है; पर्वत उसमें शिलबट्टे हैं और अनुभवरूप अंकुर हैं। जहाँ जीव मरता है वहीं क्षण में ये सब देखता है। इसी प्रकार एक २ जीव को अनेक जगत् भासते हैं। हे रामजी! कितने कोटि ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, पवन और सूर्यादिक हुए हैं। जहाँ सृष्टि है वहीं ये होते हैं इससे चिद्अणु में अनेक सृष्टि हैं, जीव भी अनन्त हुए हैं और उन्हीं में सुमेरु, मण्डल, दीप और लोक भी बहुतेरे हुए हैं। जो चिद्अणु में ही सृष्टि का अन्त नहीं तो परब्रह्म में अन्त कहाँ से आवे? वास्तव में है नहीं; जैसे पर्वत की दीवार में शिल्पी पुतलियाँ कल्पे तो कुछ है नहीं वैसे ही जगत् चिदाकाश में नहीं है केवल मनो मात्र ही है। हे रामजी! मनन और स्मरण भी चिदाकाशरूप है और