पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२

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योगवाशिष्ठ‌।

आनन्द हो वैसा आनन्द मुझे हुआ हे मुनीश्वर! जिस अर्थ के लिये आप आये हैं वह कृपा करके कहिये और अपना वह अर्थ पूर्ण हुआ जानिये। ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो मुझको देना कठिन है, मेरे यहाँ सब कुछ विद्यमान है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे विश्वामित्रा
गमन वर्णन नाम तृतीयस्सर्गः॥३॥

वाल्मीकिजी बोले, हे भारदाज! जब इस प्रकार राजा ने कहा तो मुनियों में शार्दूल विश्वामित्रजी ऐसे प्रसन्न हुए जैसे चन्द्रमा को देखकर क्षीरसागर उमड़ता है। उनके रोम खड़े हो आये और कहने लगे, हे गजशार्दूल! तुम धन्य हो! ऐसे तुम क्यों न कहो। तुम्हारे में दो गुण है—एक तो यह कि तुम रघुवंशी हो और दूसरे यह कि वशिष्ठजी जैसे तुम्हारे गुरु हैं जिनकी आज्ञा में चलते हो। अब जो कुछ मेरा प्रयोजन है वह प्रकट करता हूँ। मैंने दशगात्र यज्ञ का आरम्भ किया है, जब यह करने लगता हूँ तब खर और दूषण निशाचर भाकर विध्वंस कर जाते हैं और मांस, हाड़ और रुधिर डाल जाते हैं जिससे वह स्थान यब करने योग्य नहीं रहता और जब मैं और जगह जाता हूँ तो वहाँ भी वे उसी प्रकार अपवित्र कर जाते हैं इसलिये उनके नाश करने के लिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ। कदाचित् यह कहिये कि तुम भी तो समर्थ हो, तो हे राजन्! मैंने जिस यज्ञ का आरम्भ किया है उसका अंग क्षमा है। जो मैं उनको शाप दूँ तो वह भस्म हो जावें पर शाप क्रोध बिना नहीं होता। जो मैं क्रोध करूँ तो यज्ञ निष्फल होता है और जो चुपकर रहूँ तो राक्षस अपवित्र वस्तु डाल जाते हैं। इससे अब मैं भापकी शरण पाया है। हे राजन्! अपने पुत्र रामजी को मेरे साथ भेज दो, वह राक्षसों को मारें और मेरा यह सफल हो। यह चिन्ता तुम न करना कि मेरा पुत्र अभी बालक है। यह तो इन्द्र के समान शूरवीर है। जैसे सिंह के सम्मुख मृग का बच्चा नहीं ठहर सकता वैसे ही इसके सम्मुख राक्षस न ठहर सकेंगे। इसको मेरे साथ भेजने से तुम्हारा यश और धर्म दोनों रहेंगे और मेरा कार्य होगा इसमें सन्देह नहीं। हे राजन्! ऐसा कार्य त्रिलोकी में कोई