पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२०

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योगवाशिष्ठ।

होता है और तुम्हारे प्रकाश से अन्तर अज्ञानतम भी नष्ट होता है, इससे अपूर्व सूर्य हो। इसके अनन्तर देवी मन्त्री को जो राजा के पास नदी के तट के फलों के वृक्षोंके समान सोया था जन्म और कुल के कहावने के निमित्त संकल्प से जगाया और मन्त्री उठके फूलों से देवियों का पूजन कर राजा के समीप जा बैठ गया। तब सरस्वती कहने लगी, हे राजन्! तू कौन है, किसका पुत्र है और कब तूने जन्म लिया है? हे रामजी! जब इस प्रकार देवी ने पूछा तब मन्त्री, जो निकट बैठा था, बोला हे देवि! तुम्हारी कृपा से राजा का जन्म और कुल मैं कहता हूँ। इक्ष्वाकुकुल में एक राजा हुआ था जिसके कमल की नाई नेत्र थे और वह श्रीमान् था, उसका नाम कुन्दरथ था। निदान उसका पुत्र बुधरथ हुआ, बुधरथ के सिंधुरथ हुआ; उसका पुत्र महारथ हुआ; महारथ का पुत्र विष्णुरथ हुआ; उसका पुत्र कलारथ हुआ; कलारथ का पुत्र सयरथ हुआ; सयरथ का पुत्र नभरथ हुआ और उस नभरथ के बड़े पुण्य करके यह विदूरथ पुत्र हुआ। जैसे क्षीरसमुद्र से चन्द्रमा निकला है वैसे ही सुमित्रा माता से यह उपजा है। जैसे गौरीजी से स्वामिकार्तिक उत्पन्न हुए हैं वैसे ही यह सुमित्रा से उत्पन्न हुए हैं। हे देवि! इस प्रकार तो हमारे राजा का जन्म हुआ है। जब यह दश वर्ष का हुआ तब पिता इसको राज्य देकर आप वन को चला गया और उस दिन से इसने धर्म की मर्यादा से पृथ्वी की पालना की और बड़े पुण्य किये हैं। उन्हीं पुण्यों का फल तुम्हारा दर्शन अब इसको हुआ है। हे देवि! जो तुम्हारे दर्शन के निमित्त बहुत वर्षों तप करते हैं उनको भी तुम्हारा दर्शन पाना कठिन है, इससे इसके बड़े पुण्य हैं कि तुम्हारा दर्शन प्राप्त हुआ। हे रामजी! इस प्रकार कहके जब मन्त्री तूष्णीम् हुमा तब देवीजी ने कृपा करके राजा विदूरथ के शीश पर हाथ रखकर कहा, हे राजन्! तुम अपने पूर्वजन्म को विवेकदृष्टि करके देखो कि तुम कौन हो? देवी के हाथ रखने से राजा के हृदय का अज्ञानतम निवृत्त हो गया; हृदय प्रफुल्लित हुआ और देवी के प्रसाद से राजा को पूर्व की स्मृति फर भाई। लीला और पद्म का सम्पूर्ण वृत्तान्त स्मरण करके कहने लगा हे देवि!