पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१५
उत्पत्ति प्रकरण।

बड़ा अचरज है कि यह जगत् मन से रचा है। यह मैंने तुम्हारे प्रसाद से जाना कि मैं राजा पद्म था और लीला मेरी स्त्री थी। मुझको मृतक हुए एक दिन ऐसे में भासा और यहाँ मैं सौ वर्ष का हुमा हूँ सो अब तक भ्रम से मैंने नहीं जाना; अब प्रत्यक्ष जानता हूँ। सौ वर्षों में जो अनेक कार्य मैंने किये हैं वह सब मुझको स्मरण होते हैं और अपने प्रपितामह और अपनी बाल्यावस्था व यौवन अवस्था मित्र और बान्धव भी स्मरण आते हैं—यह बड़ा आश्चर्य हुआ है। सरस्वती बोली, हे राजन्! जब जीव मृतक होते हैं तब उनको बड़ी मूर्च्छा होती है। उस मूर्च्छा के अनन्तर और और लोक भास आते हैं और एक मुहूर्त में वर्षों का अनुभव होता है। जैसे स्वप्न में एक मुहूर्त में अनेक वर्षों का अनुभव होता है, वैसे ही तुझको मृत्यु-मूर्च्छा के अनन्तर यह लोकभ्रम भासता है। हे राजन्! जहाँ तुम पद्म राजा थे उस गृह में मृतक हुए तुमको एक मुहूर्त बीता है और यहाँ तुमको बहुतेरे वर्षों का अनुभव हुआ है। इससे भी जो पिछला वृत्तान्त है वह सुनिये। हे राजन्! पहाड़ के ऊपर एक ग्राम था उसमें एक वशिष्ठ ब्राह्मण रहता था और अरुन्धती उसकी स्त्री थी। वह दोनों मन्दिर में रहते थे। अरुन्धती ने मुझसे वर लिया कि जब मेरा भर्ता मृतक हो तब उसका जीव इसी मण्डपाकाश में रहे। निदान जब वह मृतक हुआ तब उसकी पुर्यष्टक उसी मन्दिर में रही पर उसके संवित् में राजा की दृढ़ वासाना थी इसलिये उस मण्डपाकाश में उसको पद्म राजा की सृष्टि फुर आई और अरुन्धती उसकी स्त्री लीला होकर उसको प्राप्त हुई राजा पद्म का मण्डप उस ब्राह्मण के मण्डापाकाश में स्थित हुआ और फिर उस मण्डप में जब तू राजा पद्म मृतक हुआ तब तेरे संवित् में नाना प्रकार के आरम्भसंयुक्त यह जगत् फुर आया। हे राजन्! यह तेरा जगत् पद्म राजा के हृदय में फुर आया है और पद्म राजा के मण्डपाकाश में स्थित है। पद्म राजा का जगत् उस वशिष्ठ ब्राह्मण के मण्डपाकाश में स्थित है और वही वशिष्ठ ब्राह्मण तुम विदूरथ राजा हुए हो। हे राजन्! यहसव जगत् प्रतिभामात्र है और मन की कल्पना से भासता है—उपजा कुछ नहीं। इतना सुन विदूरथ बोले, बड़ा आश्चर्य