पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२२

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योगवाशिष्ठ।

है कि जैसे मेरा यह जन्म भ्रमरूप हुआ वैसे ही इक्ष्वाकु का कुल और मेरे माता पिता सब भ्रमरूप हुए हैं। उसमें मैं जन्म लेके बालक हुआ और जब दश वर्ष का था तब पिता ने मुझको राज्य देके वनवास लिया। फिर मैंने दिग्विजय करके प्रजा की पालना की और शत वर्षों का मुझको अनुभव होता है। फिर मुझको दारुण अवस्था युद्ध की इच्छा हुई है और युद्ध करके रात्रि को मैं गृह में आया। अब तुम दोनों देवियाँ मेरे गृह में आई और मैंने तुम्हारी पूजा की। तब तुम दोनों में से एक देवी ने कृपा करके मेरे शीश पर हाथ रक्खा है उसी से मुझको ज्ञान प्रकाश हुआ है जैसे सूर्य के प्रकाश से कमल प्रफुल्लित होता है वैसे ही मेरा हृदय देवी के प्रकाश से प्रफुल्लित हुआ है। इनकी कृपा से मैं कृत्कृत्य हुआ और अब मेरा सब संताप नष्ट होकर निर्वाण, समता, सुख और निर्मल पद को प्राप्त हुआ हूँ। सरस्वती बोली, हे राजन्! जो कुछ तुझको भासा है वह भ्रममात्र है और नाना प्रकार के व्यवहार और लोकान्तर भी भ्रममात्र हैं, क्योंकि वहाँ तुझको मृतक हुए अभी एक मुहूर्त व्यतीत हुआ है और इसी अनन्तर में उसी मण्डपाकाश में तुझको यह जगत् भासा। पद्म राजा की वह सृष्टि ब्राह्मण के मण्डप में स्थित है और यहाँ तुझको नदियाँ, पर्वत, समुद्र, पृथ्वी आदिक भूत सम्पूर्ण जगत् भासि आये हैं। हे राजन्! मृत्यु-मूर्च्छा के अनन्तर कभी वही जगत् भासता है, कभी और प्रकार भासता है और कभी पूर्व-अपूर्व भी भासता है। यह केवल मन की कल्पना है, पर वास्तव में असत् रूप है और अज्ञान से सत् की नाई भासता है। जैसे एक मुहूर्त शयन करके स्वप्न में बहुतेरे वर्षों का क्रम देखता है वैसे ही जगत् का अनुभव होता है। जैसे संकल्पपुर में अपना जीना, मरना और गन्धर्वनगर भ्रममात्र होता है; जैसे नौका में बैठे हुए मनुष्य को तट के वृक्ष चलते हुए भासते हैं। भ्रमण करने से पर्वत, पृथ्वी और मन्दिर भ्रमते भासते हैं और स्वप्न में अपना शिर कटा भासता हे वैसे ही यह जगत् भ्रम से भासता है। हे राजन! अज्ञान से तुझको मिथ्या कल्पना उपजी है; वास्तव में न तू मृतक हुआ और न तूने जन्म लिया, तेरा अपना आप जो शुद्ध विज्ञान