पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२३

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उत्पत्ति प्रकरण।

शान्तिरूप आत्मपद है उसी में स्थित है। नाना प्रकार का जगत् अज्ञान से भासता है और सम्यक् ज्ञान से सर्वात्मसत्ता भासती है। आत्मसत्ता ही जगत् की नाई भासती है। जैसे बड़ी मणि की किरणें नाना प्रकार हो भासती हैं सो वह मणि से भिन्न नहीं; वैसे ही आत्मसत्ता का किञ्चन आकाशरूप जगत् भासता है। गिरि और ग्राम किञ्चनरूप हो जितना जगत् विस्तार तुमको भासता है वह लीज्जा और पद्म राजा के मण्डपाकाश में स्थित है और लीला और पद्म की राजधानी उस वशिष्ठ ब्राह्मण के मण्डपाकाश में स्थित है। हे राजन्! यह जगत् वशिष्ठ ब्राह्मण के हृदय मण्डपाकाश में फुरता है। वह मण्डपाकाश जो आकाश में स्थित है उसमें न पृथ्वी है, न पर्वत हैं, न मेघ हैं, न समुद्र हैं और न कोई मुमुक्षु है। केवल शून्य शून्य स्थित है और न कोई जगत् है, न कोई देखनेवाला है—यह सब भ्रान्तिमात्र है। हे राजन्! यह सब तेरे उस मण्डपाकाश में फुरते हैं। विदूरथ बोले, हे देवि! जो ऐसा ही है तो यह मेरे भृत्य भी अपने आत्म में सत् हैं वा असत् हैं कृपा कर कहिये? देवी बोली, हे राजन्! विदित वेद जो पुरुष है वह शुद्ध बोधरूप है। उसको कुछ भी जगत् सत्यरूप नहीं भासता, सब चिदाकाश रूप ही भासता है। जैसे भ्रम निवृत्त होने पर रस्सी में सर्प नहीं भासता वैसे ही जिन पुरुषों को आत्मबोध हुआ है और जिनका जगभ्रम निवृत्त हुआ है उनको जगत् सत् नहीं भासता। जैसे सूर्य की किरणों में जल को असत् जाने तो फिर जल सत्ता नहीं भासता वैसे ही जिनको आत्मबोध हुआ है और जगत् को असत् जानते हैं उनको सत् नहीं भासता। हे राजन्! जैसे स्वप्न में कोई भ्रम से अपना कटा शीश देखे और जागने पर स्वप्न का मरना नहीं देखता वैसे ही ज्ञानवान को जगत् सत् नहीं भासता। जैसे स्वप्न का मरना भ्रम से देखता है वैसे ही अज्ञानी को जगत् सत् भासता है। परन्तु वास्तव में कुछ नहीं, शुद्ध बोध में जगत् भ्रम भासता है। जैसे शरत्काल में मेघ से रहित शुद्ध आकाश होता है वैसे ही शुद्धबोधवालों को अहं त्वं भादि व्यर्थ शब्द का अभाव होता है। हे राजन्! तुम और तुम्हारे भृत्य इत्यादि जो यह सृष्टि है वह सब