पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२७

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उत्पत्ति प्रकरण।

सुन्दर स्त्रियाँ जो नाना प्रकार के भूषणों से पूर्ण थीं वह तृणों की नाई अग्नि में जलती हैं और पुरुषों की देह और वस्त्र भी जलते हैं। सब हाय हाय शब्द करते हैं और जलते-जलते बांधव, पुत्र और स्त्रियों को ढूँढ़ते हैं। हे रामजी! यह आश्चर्य देखो कि ऐसे स्नेह से जीव बाँधे हुए हैं कि मृत्युकाल में भी स्नेह नहीं त्याग सकते, पर सेना के लोग दूसरे लोगों को मार के स्त्रियों को ले जाते हैं। हे रामजी! उस काल रणभूमि में चहुँ ओर शब्द छा गया; कोई कहता था हाय पिता; कोई कहता था हाय माता; हाय भाई; हाय पुत्र; हाय स्त्री। घोड़े, गौ, बैल, ऊँट आदि पशु इकट्टे मिल गये और अग्नि की ज्वाला वृद्धि होती जाती है और बड़ा क्षोभ उदय हुआ। जैसे महाप्रलय की अग्नि होती है वैसे ही सब स्थान अग्नि से पूर्ण हुए और उनमें अनेक जीव और स्थान दग्ध होने लगे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्ति प्रकरणे लीलोपाख्याने अग्निदाह-
वर्णनन्नामैकत्रिंशत्तमस्सर्गः॥३१॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार राजा नगर को देखता था कि लीला सहेलियों सहित अपने दूसरे स्थान से जहाँ राजा विदूरथ था आई। उसके महासुन्दर भूषण कुछ टूटे हुए और कुछ शिथिल थे। एक सहेली ने कहा, हे राजन्! तुम्हारे अन्तःपुर में जो स्त्रियाँ थीं उन्हें शत्रु ले गये हैं, पर इस लीला रानी को हम बड़े यत्न से चुराकर ले आई हैं और दूसरे लोगों को उन शत्रुओं ने बड़ा कष्ट दिया है। तुम्हारे द्वारे पर जो सेना बैठी है उसको भी वह चूर्ण करते हैं और समस्त नगर को जलाकर लूट लिया है। हे रामजी! जब इस प्रकार सहेली ने राजा से कहा तब राजा ने सरस्वतीजी से कहा, हे देवीजी! यह लीला तुम्हारी शरण आई है और तुम्हारे चरणकमलों की भ्रमरी है; इसकी रक्षा करो, और अब मैं युद्ध करने जाता हूँ। जब इस प्रकार कहकर राजा क्रोध संयुक्त युद्ध करने को रण की ओर मत्त हाथी के समान चला तब देवी के साथ जो प्रथम लीला थी उसने क्या देखा कि उस लीला का अपनी ही मूर्ति सा सुन्दर आकार है। जैसे आरसी में प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही