पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२८

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योगवाशिष्ठ।

देखके कहने लगी, हे देवि। इसमें मैं क्योंकर प्राप्त हुई? जब मैं प्रथम आई थी तब तो मुझको मन्त्री, टहलुये और अनेक पुरवासी देखते थे और वह संशय मैंने तुमसे निवृत्त किया था, फिर अब मैं इस प्रकार कैसे आन स्थित हुई। यह दृश्यरूप कैसा आदर्श है जिसके भीतर बाहर प्रतिबिम्ब होता है? यह मन्त्री और टहलुये और मेरा यह स्वरूप क्या है और दृश्यभाव हो क्योंकर भासता है? मेरा यह संशय दूर करो। देवी बोली, हे लीले! जैसे चित्तसंवित् में स्पन्द फुरता है वैसे ही तत्काल सिद्ध होता है। जिस अर्थ को चिन्तन करनेवाला चित्तसंवित् शरीर को त्यागता है उसी अर्थ को प्राप्त होता है और उसी क्षण में देश काल और पदार्थ की दीर्घता होती है। जैसे स्वप्न सृष्टि फुर आती है वैसे ही परलोकदृष्टि भास आती है। हे लीले! जब तेरा भर्ता मृतक होने लगा था तब तुझमें और मन्त्रियों में इसका बहुत स्नेह था इससे वही रूप सत् होकर अपनी वासना के अनुसार उसे भासा है जैसे सङ्कल्पपुर और स्वप्नसेना भासती है वैसे ही यह "देश काल और पदार्थ" भासे हैं। हे लीले! जो कोई असत् पदार्थ सतरूप होकर भासते हैं वह अज्ञानकाल में ही भासते हैं, ज्ञान काल में सब तुल्य हो जाते हैं; न्यूनाधिक कोई नहीं रहता; जाग्रत् में स्वम मिथ्या भासता और स्वप्न में जाग्रत् का अभाव हो जाता है। जाग्रत् शरीर मृतक में नष्ट हो जाता है; मृतक जन्म में प्रसत् हो जाता है और मृतक में जन्म असत् हो जाता है। हे लीले! जब इस प्रकार इनको विचार कर देखिये तो सब अवस्था भ्रान्तिमात्र हैं, वास्तव में कोई सत्य नहीं। हे लीले! सर्ग से आदि महापलय पर्यन्त कुछ नहीं हुआ! सदा ज्यों का त्यों ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है; जगत् आभासमात्र है और अज्ञान से भासता है। जैसे आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही आत्मा में जगत् भ्रम से भासता है और वास्तव में कुछ भी नहीं जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजकर लीन होते हैं वैसे ही आत्मा में जगत् उपजकर लीन होते हैं। इससे 'अहं' 'वं' आदि शब्द भ्रान्तिमात्र हैं। हे लीले। यह जगत् मृगतृष्णा के जलवत् है। इसमें आस्था करनी अज्ञानता है और भ्रान्ति भी कुछ वस्तु नहीं। जैसे घनतम में यक्ष भासता