पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२२९

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उत्पत्ति प्रकरण।

है पर वह यक्ष कोई वस्तु नहीं है, ब्रह्मसत्ता ज्यों की त्यों है, वैसे ही भ्रान्ति भी कुछ वस्तु नहीं। जन्म, मृत्यु और मोह सब असत् रूप हैं। 'अहं' 'त्वं' आदि जितने शब्द हैं उनका महाप्रलय में प्रभाव हो जाता है उसके पीछे जो शुद्ध शान्तरूप है अब भी वही जान कि ज्यों की त्यों ब्रह्मसत्ता है। हे लीले! यह जो पृथ्वी आदि भूत भासते हैं सो भी संवितरूप हैं क्योंकि जब चित्तसंवित् स्पन्दरूप होता है तब यह जगत् होके भासता है और इसी कारण संवितरूप है। हे लीले! जीवरूपी समुद्र में जगत् रूप तरङ्ग उत्पन्न होते हैं और लीन भी होते हैं, पर वास्तव में जलरूप हैं और कुछ नहीं। जैसे अग्नि में उष्णता होती है वैसे ही जीव में सर्ग है जो ज्ञानवान है उसको सर्वात्मा भासता है और अज्ञानी को भिन्न-भिन्न कल्पना होती है। हे लीले! जैसे सूर्य की किरणों में त्रसरेणु भासते हैं, पवन में स्पन्द होता है और उसमें सुगन्ध होती है सो सब निराकार है वैसे ही जगत् भी आत्मा में निर्वपु है। भाव प्रभाव; ग्रहण त्याग, सूक्ष्म स्थूल; चर अचर इत्यादि सब ब्रह्म में आभास हैं। हे लीले! यह जगत् जो साकाररूप भासता है सो आत्मा से भिन्न नहीं। जैसे वृक्ष के अङ्ग पत्र, फल, टासरूप हो भासते हैं वैसे ही ब्रह्मसत्ता ही जगतरूप होकर भासती है और कुछ नहीं। जैसे चेतन संवित् में जैसा स्पन्द फुरता है वैसे ही होकर भासता है, पर वह आकाशरूप संवित् ज्यों की त्यों है, उसमें और कल्पना भ्रममात्र है। हे लीले! यह जो जगत् भासता है वह न सत् है और न असत् है। जैसे रस्सी में भ्रम से सर्प भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। जिसको असम्यकज्ञान होता है उसको रस्सी में सर्प भासता है तो वह असत् न हुआ और जिसको सम्यक बोध होता है उसको सर्प सत् नहीं। ऐसे ही अज्ञान से जगत् असत् नहीं भासता और आत्मज्ञान होने से सत् नहीं भासता, क्योंकि कुछ वस्तु नहीं है। हे बोले! जैसे जिसके अन्तःकरण में स्पन्द फरता है उसका वह अनुभव करता है। जब यह जीव मृतक होता है तब इसको एक क्षण में जगत् फुर आता है। किसी को अपूर्वरूप फुर आता है, किसी को पूर्वरूप फुर आता है और किसी को अपूर्व मिश्रित