पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३

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वैराग्य प्रकरण।

नहीं जो रामजी न कर सकें इसीलिये मैं तुम्हारे पुत्र को लिये जाता हूँ यह मेरे हाथ से रक्षित रहेगा और कोई विघ्न न होने दूँगा। जैसे तुम्हारे पुत्र हैं मैं भौर वशिष्ठजी जानते हैं। और ज्ञानवान भी जो त्रिकालदर्शी हैं जानेंगे और किसी की सामर्थ्य नहीं जो इनको जानें। हे राजन्! जो समय पर कार्य होता है वह थोड़े ही परिश्रम से सिद्ध होता है और समय बिना बहुत परिश्रम करने से भी नहीं होता। ् खर और दूषण प्रबल दैत्य हैं, मेरे यज्ञ को खण्डित करते हैं। जब रामजी जावेंगे तब वह भाग जावेंगे इनके आगे खड़े न रह सकेंगे। जैसे सूर्य के तेज से तारागण का प्रकाश क्षीण हो जाता है वैसे ही रामजी के दर्शन से वे स्थित न रहेंगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वज! जब विश्वामित्र ने ऐसा कहा तब राजा दशरथ चुप होकर गिर पड़े और एक मुहूर्त पर्यन्त पड़े रहे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्य प्रकरणे दशरथ विषादो नाम
चतुर्थस्सर्गः॥४॥

वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज! एक मुहूर्त उपरान्त राजा उठे और अधैर्य होकर बोले हे मुनीश्वर! आपने क्या कहा? रामजी तो अभी कुमार हैं। अभी तो उन्होंने शस्त्र और अस्त्रविद्या नहीं सीखी, बल्कि फूलों की शय्या पर शयन करनेवाले अन्तःपुर में स्त्रियों के पास बैठनेवाले भोर बालकों के साथ खेलनेवाले हैं। उन्होंने कभी भी रणभूमि नहीं देखी और न भृकुटी चढ़ाके कभी युद्ध ही किया। वह दैत्यों से क्या युद्ध करेंगे? कभी पत्थर और कमल का भी युद्ध हुआ है? हे मुनीश्वर! मैं तो बहुत वर्षों का हुआ हूँ। इस वृद्धावस्था में मेरे घर में चार पुत्र हुए हैं; उन चारों में रामजी अभी सोलह वर्ष के हुए हैं और मेरे प्राण हैं। उनके बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता, जो तुम उनको ले जावोगे तो मेरे प्राण निकण जावेंगे। हे मुनीश्वर! केवल मुझे ही उनका इतना स्नेह नहीं किन्तु लक्ष्मण शत्रुघ्न, भरत और माताओं के भी प्राण हैं। जो तुम उनको ले जावोगे तो सब ही मर जावेंगे जो तुम हमको गमजी के वियोग से मारने आये हो तो ले जावो। हे मुनीश्वर! मेरे चित्त में तो रामजी पूर्ण हो रहे हैं उनको मैं आपके साथ कैसे दूँ? मैं तो उनको देखकर प्रसन्न होता