पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३०

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योगवाशिष्ठ।

फुर आता है। इस कारण तेरे भर्त को भी वही मन्त्री, स्त्री और सभा वासना के अनुसार फुर आये हैं, क्योंकि आत्मा सर्वत्ररूप है, जैसा-जैसा इसमें तीन स्पन्द फुरता है वैसा ही होकर भासता है। हे लीले! जैसे अपने मनोराज में जो प्रतिभा उदय हो आती है वह सवरूप हो भासती है वैसे ही यह जो लीला तेरे सम्मुख बैठी है सो यही हुई है और तेरे भर्ती की जो तेरे में तीव्र वासना थी इससे उसको तेरा प्रतिविम्बरूप होकर यह लीला प्राप्त हुई और तेरा सा शील, आचार, कुल, वपु इसको प्रतिबिम्बित हुआ है। हे लीले! सर्वगत संवित् आकाश है। जैसा जैसा उसमें फुरना होता है वैसा ही वैसा चिद्रूप आदर्श में प्रतिबिम्ब भासता है। इस सब जगत् का चेतन दर्पण में प्रतिविम्ब होता है; वास्तव में तू और मैं, जगत्, आकाश, भवन, पृथ्वी, राजा आदि सब आत्मरूप हैं। आत्मा ही जगतरूप हो भासता है। जैसे बेलि से मज्जा भिन्न नहीं वैसे ही यह जगत् ब्रह्मस्वरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने अग्निदाहवर्णन
न्नाम द्वात्रिंशत्तमस्सर्गः॥३२॥

देवी बोली, हे लीले! तेरा भर्त राजा विदूरथ रण में संग्राम करके शरीर त्यागेगा और उसी अन्तःपुर में प्राप्त होकर राज्य करेगा। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार देवी ने कहा तव विदूरथ के पुरवाली लीला ने हाथ जोड़ के देवी को प्रणाम किया और कहा, हे देवि! भगवति! मैंने ज्ञप्तिरूप का नित्य पूजन किया और उसने स्वप्न में मुझको दर्शन दिया। जैसे वह ईश्वरी थी वैसे ही तुम भी मुझको दृष्टि आती हो। इससे मुझ पर कृपा करके मनवाञ्छित फल दो। तब देवी अपने भक्त पर प्रसन्न होकर बोली, हे लीले! तूने अनन्य होकर मेरी भक्ति की है और उससे तेरा शरीर भी जीर्ण हो गया है अब मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ जो कुछ तुझको वाञ्छित हो वह वर माँगा लीला बोली, हे भगवति! जब मेरा भर्ता रण में देह त्याग दे तो मैं इसी शरीर से उसकी भार्या होऊँ । देवी बोली, तूने भावना सहित भली प्रकार पुण्यादिकों से निर्विघ्न मेरी सेवा की है इससे ऐसा ही होगा। तब पूर्व