पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३२

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योगवाशिष्ठ

योधों के शब्द होने लगे। जैसे मेघ से बूँदों की वर्षा होती है और अग्नि से चिनगारियाँ निकलती है वैसे ही शस्त्रों की वर्षा होने लगी। जैसे प्रलयकाल की बड़वानल अग्नि होती है वैसे ही शस्त्रों से अग्नि निकलती थी और उन शस्त्रों से अनेक जीव मरे। इस प्रकार जब बड़ा युद्ध होने लगा तब विदुरथ की सेना कुछ निर्बल हुई और ऊर्ध्व में जो दोनों लीला देवी की दिव्य दृष्टि से देखती थीं उन्होंने कहा, हे देवि! तुम तो सर्वशक्तिमान हो ओर हमारे पर तुम्हारी दया भी है हमारे भर्ती की जय क्यों नहीं होती इसका कारण कहो? देवी बोली, हे लीले! विदूरथ के शत्रु राजा सिद्ध ने जय के निमित्त चिरकाल पर्यन्त मेरी पूजा की है और तुम्हारे भर्ता ने जय के निमित्त पूजा नहीं की, मोक्ष के निमित्त की है इससे जीत सिद्ध राजा की होगी और तेरे भर्ता को मोक्ष की प्राप्ति होगी। हे लीले! जिस जिस निमित्त कोई हमारी सेवा करता है हम उसको वैसा ही फल देती हैं। इससे राजा सिद्ध विदूरथ को जीतकर राज्य करेगा। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! फिर सेना को सब देखने लगी और दोनों राजों का परस्पर तीव्र युद्ध होने लगा। दोनों राजों ने ऐसे वाण चलाये मानों दोनों विष्णु हो खड़े हैं। विदूरथ ने एक बाण चलाया उसके सहस्र हो गये और उसके आगे जाकर लाख हो गये और परस्पर युद्ध करते-करते टुकड़े-टुकड़े होके गिर पड़े। ऐसे दूर से दूर बाण चले जाते थे कि जैसे निर्वाण किया दीपक नहीं भासता। तब राजा सिद्ध ने मोहरूपी अस्त्र चलाया और उसके माने से विदूरथ के सिवा सब सेना मोहित हुई। जैसे उन्मत्तता से कुछ सुधि नहीं रहती वैसे ही उनको कुछ सुधि न रही और परस्पर देखते ही रह गये मानों चित्र लिखे हैं। तब राजा विदूरथ को भी मोह का आवेश होने लगा तो उसने अबोधरूपी शस्त्र चलाया उससे सबका मोह छूट गया और जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी कमल प्रफुल्लित हो आते हैं वैसे ही सबके हृदय प्रफुल्लित हो गये। तब सिद्ध राजा ने नागास्त्र वाण चलाया उससे अनेक ऐसे नाग निकल आये मानों पर्वत उड़े आते हैं। निदान सब दिशाएँ नागों से पूर्ण हो गई और उनके मुखसे विष और अग्नि की ज्वाला