पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३३

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उत्पत्ति प्रकरण।

निकली जिससे विदूरस्थ की सेना ने बहुत कष्ट पाया तब राजा विदूरथ ने गरुड़ास्त्र चलाया उससे अनेक गरुड़ प्रकट हुए और जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही सर्प नष्ट हुए और नागों को नष्ट करके गरुड़ भी अन्तर्धान हो गये। जैसे संकल्प के त्यागने से संकल्पसृष्टि का प्रभाव होजाता है वैसे ही गरुड़ अन्तर्धान हो गये और जैसे स्वप्न से जागे हुए को स्वप्ननगर का प्रभाव हो जाता है वैसे ही गरुड़ों का प्रभाव हो गया। फिर जब कोई बाण सिद्ध चलावे तो विदूरथ उसको नष्ट करे जैसे सूर्य तम को नष्ट करे और उसने बाणों की बड़ी वर्षा की उससे सिद्ध भी क्षोभ को प्राप्त हुआ। तब पिछली लीला ने झरोखे से देखके देवीजी से कहा हे देवि! अब मेरे भर्त की जय होती है। देवी सुनके मुसकराई पर मुख से कुछ न कह हृदय में विचारा कि जीव का चित्त बहुत चञ्चल है, ऐसे देखते ही थे कि सूर्य उदय हुए—मानों सूर्य भी युद्ध का कौतुक देखने आये है—और सिद्ध ने तमरूप अस्त्र चलाया जिससे सर्वदिशा श्याम हो गई और कुछ भी न भासित होता था—मानों काजल की समष्टिता इकट्ठी हुई है। तब विदूरथ ने सूर्यसा प्रकाशरूपी अन चलाया जिससे सब तम नष्ट हो गया। जैसे शरदकाल में सब घटा नष्ट हो जाती हैं, केवल शुद्ध आकाश ही रहता है, जैसे आत्मज्ञान से लोभादिक का ज्ञानी को प्रभाव हो जाता है और जैसे लोभरूपी काजल के निवृत्त होने से ज्ञानवान की बुद्धि निर्मल होती है वैसे ही प्रकाश से तम नष्ट हो गया और सब दिशा निर्मल हुई। जैसे अगस्त्यमुनि समुद्र को पान कर गये थे वैसे ही प्रकाश तम का पान कर गया। तब सिद्ध ने वैतालरूपी अन चलाया जिससे विदूरथ की सेना मोहित हो गई और उसमें से महाविकराल और परबाही समान मूर्ति धारण किये ऐसे श्यामरूप वैताल भासने लगे, जो प्रहण न किये जावें भोर जीव के भीतर प्रवेश कर जावें। जिनके रहने का स्थान शून्य मन्दिर, कीचड़ और पर्वत हैं, शस्त्र से निकलकर विदूरथ की सेना को दुःख देने लगे। पिशाच वह होते हैं जिनकी शास्त्रोक्त क्रिया नहीं होती और जो मरके भूत, पिशाच और वैताल