पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२३६

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योगवाशिष्ठ।

थे। फिर ढिंढोरा फिराया गया कि राजा सिद्ध की विजय हुई। निदान सब और से शान्ति हुई। सिद्ध राजा के ऊपर छत्र होने लगा और सब पृथ्वी का राजा वही हुआ। जैसे क्षीरसमुद्र से मन्दराचल निकल के शान्त हुआ वैसे ही सब ओर शान्ति हुई। हे रामजी! जब राजा विदूरथ गृह में आया तब उसकी और दूसरी लीला को देख के प्रबुध लीला कहने लगी, हे देवि! यह शरीर से वहाँ क्योंकर जा प्राप्त होगी? यह तो भर्ता को ऐसे देखके मृतकरूप हो गई है और राजा भी मृत्यु के निकट पड़ा है केवल कुछ श्वास आते जाते हैं। देवी बोली, हे लीले! यह जितने आरम्भ तू देखती है कि युद्ध हुआ और नाना प्रकार का जगत् है सो सब भ्रान्तिमात्र है और तेरा भर्ता जो पद्म था उसका हृदय जो मण्डपाकाश में था वहीं यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है। पद्म का मण्डपाकाश वशिष्ठ ब्राह्मण के मण्डपाकाश में स्थित है और वशिष्ठ ब्राह्मण का मण्डपाकाश चिदाकाश के आश्रय स्थित है। हे लीले! यह सम्पूर्ण जगत् वशिष्ठ ब्राह्मण की पुर्यष्टक में स्थित है सो आकाश में ही आकाश स्थित है। किचन है इससे सम्पूर्ण जगत् फुरता है, पर वास्तव में किञ्चन भी कुछ वस्तु नहीं आत्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है। उस आत्मसत्ता में अहं त्वं जगत् भ्रम से भासता है, कुछ उपजा नहीं। हे लीले! उस वशिष्ठ ब्राह्मण के मण्डपाकाश में नाना प्रकार के स्थान हैं और उनमें प्राणी आते जाते और नानाव्यवहार करते भासते हैं। जैसे स्वप्नसृष्टि में नाना प्रकार के आरम्भ भासते हैं सो असत्रूप हैं वैसे ही यह जगत् भी असवरूप है। हे लीले! न यह द्रष्टा है और न आगे दृश्य है; सब भ्रमरूप हैं । द्रष्टा, दर्शन, दृश्य त्रिपुटी व्यवहार में है । जो दृश्य नहीं तो द्रष्टा कैसे हो? सब असत्रूप है। इनसे हित जो परमपद है वह उदय अस्त से रहित, नित्य, भज, शुद्ध, अविनाशी और अद्वैतरूप अपने आप में स्थित है। जब उसको जानता है तब दृश्य भ्रम नष्ट हो जाता है। हे लीले! दृश्य भ्रम से भासता है वास्तव में न कुछ उपजा है और न उपजेगा। जितने सुमेरु आदिक पर्वत जाल और पृथ्वी आदिक तत्त्व भासते हैं वे सब आकाशरूप हैं