पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४

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योगवाशिष्ठ।

हूँ। रामजी के वियोग से मेरे प्राण कैसे बचेंगे? हे मुनीश्वर! ऐसी प्रीति मुझे स्त्री, धन और पदार्थों की नहीं जैसी रामजी की है। मैं आपके वचन सुनकर अति शोकवान् हुआ हूँ। मेरे बड़े अभाग्य उदय हुए जो आप इस निमित्त आये। मैं रामजी को कदापि नहीं दे सकता। जो आप कहिये तो मैं एक अक्षौहिणी सेना, जो प्रति शूरवीर और शस्त्र अस्त्रविद्या से सम्पन्न है साथ लेकर चलूँ और उनको मारूँ पर जो कुबेर का भाई और विश्रवा का पुत्र रावण हो तो उससे मैं युद्ध नहीं कर सकता। पहिले में बड़ा पराक्रमी था; ऐसा कोई त्रिलोकी में न था जो मेरे सामने आता, पर अब वृद्धावस्था प्राप्त होकर देह जर्जर हो गई है। हे मुनीश्वर! मेरे बड़े अभाग्य हैं जो आप आये। मैं तो रावण से काँपता हूँ और केवल मैं ही नहीं वरन इन्द्र भादि देवता भी उससे काँपते भोर भय आते हैं। किसकी सामर्थ्य है जो उससे युद्ध करे। इस काल में वह बड़ा शूरवीर है। जो मेरी ही उसके साथ युद्ध करने की सामर्थ्य नहीं तो राजकुमार रामजी की क्या सामर्थ्य है? जिन रामजी को तुम लेने आये हो वह तो रोगी पड़े हैं। उनको ऐसी चिन्ता बगी है जिससे महाकश हो गये हैं और अन्तःपुर में अकेले बैठे रहते हैं। खाना-पीना इत्यादि जो राजकुमारों की चेष्टाये हैं वह भी सब उनको विसर गई हैं और मैं नहीं जानता कि उनको क्या दुःख हुआ। जैसे पीतवर्ण कमल होता है वैसे ही उनका मुख हो गया है। उनको युद्ध की सामर्थ्य कहाँ है? उन्होंने तो अपने स्थान से बाहर की पृथ्वी भी नहीं देखी है हमारे प्राण वहीं हैं उनके वियोग से नहीं जी सकते।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे दशरथोक्तिवर्ण
नन्नाम पञ्चमस्सर्गः॥५॥

वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार दशरथजी ने महादीन और अधैर्य होकर कहा तो विश्वामित्रजी क्रोध करके कहने लगे कि हे राजन! तुम अपने धर्म को स्मरण करो। तुमने कहा था कि तुम्हारा अर्थ सिद्ध करूँगा पर अब तुम अपने धर्म को त्यागते हो। जो तुम सिंहों के समान होकर मृगों की नाई भागते हो तो भागो पर आगे