पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४१

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उत्पत्ति प्रकरण।

शान्तरूप और आत्मानन्द से तृप्त रहते हैं, पर अज्ञानी शान्ति कैसे पावें? जैसे जिसको ताप चढ़ा होता है उसका अन्तःकरण जलता है और तृषा भी बहुत लगती है वैसे ही जितको अज्ञानरूपी ताप चढ़ा हुआ है उसका अन्तर राग-द्वेष से जलता है और विषयों की तृष्णारूपी तृषा भी बहुत होती है। जिसका अज्ञानरूपी तम नष्ट हुआ है उसका अन्तर रागद्वेषादिक से नहीं जलता और उसकी विषय की तृष्णा भी नष्ट हो जाती है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मण्डपाकाश गमनवर्णनन्नाम पट्त्रिंशत्तमस्सर्गः॥३६॥

देवी बोली हे लीले! जो पुरुष अविदितवेद है अर्थात् जिसने जानने योग्य पद नहीं जाना वह बड़ा पुण्यवान भी हो तो भी उसको अन्तवाहकता नहीं पास होती। अन्तवाहक शरीर भी झूठ है, क्योंकि सङ्कल्परूप है। इससे जितना जगत् तुझको भासता है वह कुछ उपजा नहीं; शुद्ध चिदाकाश सत्ता अपने आपमें स्थिर है। फिर लीला ने पूछा हे देवि! जो यह सब जगत् संकल्पमात्र है तो भाव और अभावरूप पदार्थ कैसे होते हैं? अग्नि उष्णरूप है, पृथ्वी स्थिररूप है, वस्फ शीतल है, आकाश की सचा है, काल की सत्ता है, कोई स्थूल है, कोई सूक्ष्म पदार्थ है, प्रहण, त्याग, जन्म, मरण, होता है; ओर मृतक हुआ फिर जन्मता है इत्यादिक सत्ता कैसे भासती हैं? देवी बोली, हे लीले! जब महाप्रलय होता है तब सब पदार्थ प्रभाव को प्राप्त होते हैं और काल की सत्ता भी नष्ट हो जाती है। उसके पीछे अनन्त चिदाकाश; सब कलनामों से रहित और बोधमात्र ब्रह्मसत्ता ही रहती है। उस चेतन्यमात्रसत्ता से जब चित्तसंवित् होती है तब चैतन्यसंवित् में भापको तेज अणु जानता है। जैसे स्वप्न में कोई श्रापको पत्तीरूप उड़ता देख वैसे ही देखता है। उससे स्थूलता होती है, वही स्थूलता ब्रह्माण्डरूप होती है उससे तेज अणु आपको ब्रह्मारूप जानता है। फिर ब्रह्मारूप होकर जगत् को रचता है। जैसे जैसे ब्रह्मा चेतता जाता है वैसे ही वैसे स्थूल रूप होता जाता है। आदि रचना ने जैसा निश्चय किया है कि यह ऐसे हो और इतने काल रहे उसका नाम नीति है। जैसे आदि रचना नियत की है वह ज्यों की त्यों होती है, उसके निवारण करने