पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४५

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उत्पत्ति प्रकरण।

की तादाम्यता और पदार्थों के स्नेह के वियोग से इसको कष्ट होता है। प्राण अपान की जो कला है और जिसके आश्रय शरीर होता है सो टूटने लगता है। जिन स्थानों में प्राण फुरते थे उन स्थानों और नाड़ियों से निकल जाते हैं और जिन स्थानों से निलकते हैं वहाँ फिर प्रवेश नहीं करते। जब नाड़ियाँ जर्जरीभूत हो जाती हैं और सब स्थानों को प्राण त्याग जाते हैं तब यह पुर्यष्टक शरीर को त्याग निर्वाण होता है ्। जैसे दीपक निर्वाण हो जाता है और पत्थर की शिला जड़ीभूत होती है वैसे ही पुर्यष्टक शरीर को त्यागकर जड़ीभूत हो जाती है और प्राण अपान की कला टूट पड़ती है। हे लीले! मरना और जन्म भी भ्रान्ति से भासता है-आत्मा में कोई नहीं। संवित्मात्र में जो संवेदन फुरता है सो अन्य स्वभाव से सत्य की नाई होकर स्थित होता है और मरण और जन्म उसमें भासते हैं और जैसी जैसी वासना होती है उसके अनुसार सुखदुःख का अनुभव करता है। जैसे कोई पुरुष नदी में प्रवेश करता है तो उसमें कहीं बहुत जल और कहीं थोड़ा होता है, कहीं बड़े तरङ्ग होते हैं और कहीं सोमजल होता है पर वे सब सोमजल में होते हैं, वैसे ही जैसी वासनाहोती है उसी के अनुसार सुख दुःख का अनुभव होता है और अधः, ऊर्व,मध्य, वासनारूपी गढ़े में गिरते हैं। शुद्ध चैतन्यमात्र में कोई कल्पना नहीं अनेक शरीर नष्ट हो जाते हैं और चैतन्यसत्ता ज्यों की त्यों रहती है। जो चैतन्यसत्ता भी मृतक हो तो एक के नष्ट हुए सब नष्ट हो जायें पर ऐसे तो नहीं होना चैतन्यसत्ता से सब कुछ सिद्ध होता है जो वह न हो तो कोई किसी को न जाने। हे लीले! चैतन्यसत्तानजन्मती है और न मरती है, वह तो सर्वकल्पना से रहित केवल चिन्मात्र है उसका किसी काल में कैसे नाश हो? जन्ममरण की कल्पना संवेदन में होती है अचेत चिन्मात्र में कुछ नहीं हुआ। हे लीले! मरता वही है जिसके निश्चय में मृत्यु का सद्भाव होता है। जिसके निश्चय में मृत्यु का सद्भाव नहीं वह केसे मरे? जब जीव को दृश्य का अत्यन्त अभाव हो तब बन्धों से मुक्त हो। वासना ही इनके बन्धन का कारण है; जब वासना से मुक्त होता है तब बन्धन कोई नहीं रहता। हे लीले! आत्मविचार से