पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४६

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योगवाशिष्ठ।

ज्ञान होता है और ज्ञान से दृश्य का अत्यन्ताभाव होता है। जब दृश्य का अत्यन्ताभाव हुआ तब सब वासना नष्ट होजाती हैं। यह जगत् उदय हुआ नहीं, परन्तु उदय हुए की नाई वासना से भासता है। इससे वासना का त्याग करो। जब वासना निवृत्त होगी तब बन्धन कोई न रहेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मृत्युविचारवर्णनन्नाम
समत्रिशत्तमस्सर्गः॥३७॥

लीला ने पूछा, हे देवि! यह जीव मृतक कैसे होता है और जन्म कैसे लेता है, मेरे बोध की वृद्धता के निमित्त फिर कहो? देवी बोली, हे लीले! प्राण अपान की कला के आश्रय यह शरीर रहता है और जब मृतक होने लगता है तब प्राणवायु अपने स्थान को त्यागता है और जिस जिस स्थान की नाड़ी से वह निकलता है वह स्थान शिथिल हो जाता है। जब पुर्यष्टक शरीर से निकलता है तब प्राणकला टूट पड़ती हे और चैतन्यताजड़ीभूत होजाती है। तब परिवार वाले लोग उसको प्रेत कहते हैं। हे लीले! तब चित्त की चैतन्यता जड़ीभूत हो जाती है और केवल चैतन्य जो ब्रह्मसत्ता है सो ज्यों की त्यों रहती है। जो स्थावर जङ्गम सर्व जगत और आकाश, पहाड़, वृक्ष, अग्नि, वायु आदिक सर्व पदार्थों में व्याप रहा है और उदय अस्त से रहित हैं। हे लीले! जब मृत्यु मूर्च्छा होती है तब प्राणपवन आकाश में लीन होते हैं। उन प्राणों में चैतन्यता होती है और चैतन्यता में वासना होती है। ऐसी जो प्राण और चैतन्यसत्ता है सो वासना को लेकर आकाश में आकाशरूप स्थित होती है। जैसे गन्ध को लेकर आकाश में वायु स्थित होता है वैसे ही वासना को लेकर चैतन्यता स्थित होती है। हे लीले! उस अपनी वासना के अनुसार उसे जगत् फुर आता है वह देश, काल, क्रिया और द्रव्य सहित देखता है। मृत्यु भी दो प्रकार की है एक पापात्मा की ओर दूसरी पुण्यात्मा की। पापी तीन प्रकार के है—एक महापापी दूसरे मध्यम पापी और तीसरे अल्प पापी। ऐसे ही पुण्यवान भी तीन प्रकार के हैं—एक महापुण्यवान्, दूसरा मध्यम पुण्यवान भोर तीसरा अल्प पुण्यवान्। प्रथम पापियों की मृत्यु सुनिये। जब बड़ा पापी मृतक होता