पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४७

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उत्पत्ति प्रकरण।

है तब वह जर्जरीभूत हो जाता है और धन पाषाण की नाई सहस्रों वर्षों तक मूर्च्छा में पड़ा रहता है। कितने ऐसे जीव हैं जिनको उस मूर्च्छा में भी दुःख होता है। बाहर इन्द्रियों को दुःख होता है तब उसके रागदेष को लेकर चित्त की वृत्ति हृदय में स्थित होती है वैसे ही पापवासना का दुःख हृदय में होता है और भीतर से जलता है। इस प्रकार जड़ीभूत मूर्च्छा में रहता है। इसके अनन्तर उसको फिर चैतन्यता फुर आती है तब अपने साथ शरीर देखता है। फिर नरक भोगता है भोर चिरकाल पर्यन्त नरक भोग के बहुतेरे जन्म पशु आदिकों के लेता है भोर महानीच और दरिद्री निर्धनों के गृह में जन्म लेकर वहाँ भी दुःखों से तत रहता है। हे लीले! यह महापापियों की मृत्यु तुझसे कही। अब मध्यम पापी की मृत्यु सुन। जब मध्यम पापी की मृत्यु होती है तब वह भी वृक्ष की नाई मूर्च्छा से जड़ीभूत हो जाता है और भीतर दुःख से जलता है। जड़ीभूत से थोड़े काल में चिर चेतनता पाता है। फिर नरक भुगतता है और नरक भोग के तिर्यगादिक योनि भुगतता है। उसके पीछे वासना के अनुसार मनुष्य-शरीर पाता है। अब अल्प पापी की मृत्यु सुनो। हे लीले! जब अल्पपापी मृतक होता है तब मूर्च्छित हो जाता है और कुछ काल में उसको चेतनता फुरती है। फिर नरक में जाकर भुगतता है, फिर कर्मों के अनुसार और जन्मों को भुगतता है। और फिर मनुष्य शरीर धारता है। ले लीले! यह पापात्मा की मृत्यु कही अब धर्मात्मा की मृत्यु सुन। जो महा धर्मात्मा है वह जब मृतक होता है तब उसके निमित्त विमान पाते हैं उन पर आरूद कराके उसे स्वर्ग में ले जाते हैं। जिस इष्टदेवता की वासना उसके हृदय में होती है उसके बोक में उसे ले जाते हैं और उसके कर्मानुसार स्वर्ग सुख भुगतता है स्वर्ग सुख जो गन्धर्व, विद्याधर, अप्सरा आदिक भोग हैं उनको भोग के फिर गिरता है और किसी फल में स्थित होता है। तब उस फल को मनुष्य भोजन करता है तब वीर्य में जा स्थित होता है और उस वीर्य से माता के गर्भ में स्थित होता है। वहाँ से वासना के अनुसार फिर जन्म देता है, जो भोग की कामना होती है तो श्रीमान धर्मात्मा के