पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२४९

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उत्पत्ति प्रकरण।

होती केवल क्रीड़ा में मग्न होता है उसमें आगे यौवन अवस्था आती है तो कामादिक विकारों से अन्धा हो जाता है और कुछ विचार नहीं रहता। फिर वृद्धावस्था पाती है तो शरीर महाकृश हो जाता है, बहुत रोग उपजते हैं और शरीर कुरूप हो जाता है। जैसे कमलों पर बरफ पड़ती है वे कुम्हिला जाते हैं वैसे ही वृद्ध अवस्था में शरीर कुम्हिला जाता है ओर सब शक्ति घटकर तृष्णा बढ़ती जाती है। फिर कटवान होकर मृतक होता है तब वासना के अनुसार स्वर्ग नरक के भोगों को प्राप्त होता है। इस प्रकार संसारचक्र में वासना के अनुसार घटीयन्त्र की नाई भ्रमता है—स्थिर कदाचित् नहीं होता। हे लीले! इस प्रकार जीव आत्मपद के प्रमाद से जन्ममरण पाता है और फिर माता के गर्भ में आके बाल, यौवन, वृद्ध और मृतक अवस्था को प्राप्त होता है। फिर वासना के अनुसार परलोक देखता है और जाग्रत को स्वप्ने की नाई भ्रम से फिर देखता है जैसे स्वप्ने से स्वप्नान्तर देखता है वैसे ही अपनी कल्पना से जगत्भ्रम फुरता है। स्वरूप में किसी को कुछ भ्रम नहीं आकाशरूप आकाश में स्थित है, भ्रम से विकार भासते हैं। लीला ने पूछा, हे देवी! परब्रह्म में यह जगत् भ्रम से कैसे हुआ है? मेरे बोध को दृढ़ता के निमित्त कहो। देवी बोली, हे लीले! सर आत्म रूप हैं; पहाड़, वृक्ष, पृथ्वी, आकाशादिक स्थावर-जनम जो कुछ जगत् है वह सब परमार्थधन है और परमार्थसत्ता ही सर्व आत्मा है। हे लीले! उस सत्ता संवित् आकाश में जब संवेदन आभास फुरता है तब जगभ्रम भासता है। आदि संवेदन जो संवित्मात्र में हुआ है सो ब्रह्मरूप होकर स्थिर हुआ है और जैसे वह चेतता गया है उसी प्रकार स्थावर-जङ्गम जगत् होकर स्थित हुआ है। हे लीले! शरीर के भीतर नाही हे नाड़ी में छिद्र हैं और उन छिद्रों में स्पन्दरूप होकर माण विचरता है उसको जीव कहते हैं। जब यह जीव निकल जाता है तब शरीर मृतक होता है। हे लीले! जैसे-जैसे आदि संवित्मात्र में संवेदन फुरा हे वैसे ही वैसे अब तक स्थित है। जब उसने चेता कि में जड़ होऊँ तब वह जहरूप पृथ्वी, अपू, तेज, वायु, आकाश, पर्वत, वृक्षादिक