पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५

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वैराग्य प्रकरण।

रघुवंशी कुल में ऐसा कोई नहीं हुआ कि जिसने वचन फेरा हो। जो तुम करते हो सो करो हम चले जावेंगे परन्तु यह तुमको योग्य न था क्योंकि शून्य गृह से शून्य ही होकर जाता है। तुम बसते रहो और राज्य करते रहो जैसे कुब होगा हम समझलेंगे। इतना कहकर वाल्मीकि जी बोले कि जब इस प्रकार विश्वामित्रजी को क्रोध उत्पन्न हुआ तो पचास कोटि योजन तक पृथ्वी काँपने लगी और इन्द्रादिक देवता भयवान हुए कि यह क्या हुआ? तब वशिष्ठजी बोले, हे राजन्! इक्ष्वाकुकुल में सब परमार्थी हुए हैं भोर तुम अपना धर्म क्यों त्यागते हो? मेरे सामने तुमने विश्वामित्रजी से कहा है कि तुम्हारा अर्थ पूरा करूँगा पर अब क्यों भागते हो? रामजी को तुम इनके साथ कर दो, यह तुम्हारे पुत्र की रक्षा करेंगे। इस पुरुष के सामने किसी का बल नहीं चलता यह साबाद ही काल की मूर्ति हैं जो तपस्वी कहिये तो भी इन के समान दूसरा नहीं है और शस्त्र और अस्त्रविद्या भी इनके सदृश कोई नहीं जानता क्योंकि दक्ष प्रजापति ने अपनी दो पुत्रियाँ जिनका नाम जया और सुभगा था विश्वामित्रजी को दी थीं जिन्होंने पाँच पाँच सौ पुत्र देत्यों के मारने के लिये प्रकट किये। वे दोनों इनके सम्मुख मूर्ति धारण करके स्थित होती हैं इससे इनको कौन जीत सकता है? जिसके साथी विश्वामित्रजी हो उसको किसी का भय नहीं। आप इनके साथ अपना पुत्र निस्संशय होकर दो। किसी को सामर्थ्य नहीं कि इनके होते तुम्हारे पुत्र को कुछ कह सके। जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार का प्रभाव हो जाता हे वैसे ही इनकी दृष्टि से दुःख का प्रभाव हो जाता है। हे राजन! इनके साथ तुम्हारे पुत्र को कोई खेद न होगा। तुम इक्ष्वाकु के कुल में उत्पत्र हुए हो और दशरथ तुम्हारा नाम है, जो तुम ऐसे हो अपने धर्म में स्थित न रहे तो भोर जीवों से धर्म का पालन कैसे होगा? जो कुछ श्रेष्ठ पुरुष चेष्टा करते हैं उनके अनुसार और जीव भी करते हैं। जो तुम अपने वचनों का पालन न करोगे तो और किसी से क्या होगा? तुम्हारे कुल में अपने वचन से कोई नहीं फिरा इससे अपने धर्म का त्यागना योग्य नहीं। यदि तुम दैत्यों के भय से शोकवान् हो तो मत हो। कदाचित् मूर्तिधारी