पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५०

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योगवाशिष्ठ।

स्थित हुए और जब चेतन की भावना की तब चेतनरूप होकर स्थित हुआ। हे लीले! जिसमें प्राणक्रिया होती है वह जङ्गमरूप बोलते चलते हैं और जिसमें प्राण स्पन्द क्रिया नहीं पाई जाती सो स्थावर पर हैं रूप आत्मसत्ता में दोनों तुल्य हैं; जैसे जंगम है वैसे ही स्थावर हैं और दोनों चेतन्य हैं। जैसे जङ्गम में चैतन्यता है वैसे ही स्थावर में चैतन्यता है। यदि तू कहे कि स्थावर में चेतनता क्यों नहीं भासती तो उसका उत्तर यह है कि जैसे उत्तर दिशा के समुद्रवाले मनुष्य की बोली को दक्षिण दिशा के समुद्रवाले नहीं जानते और दक्षिण दिशा के समुद्रवाले की बोली उत्तर दिशा के समुदवाले नहीं समझ सकते वेसे ही स्थावरों की बोली जगम नहीं समझ सकते और जङ्गमों की बोली स्थावर नहीं समझ सकते परन्तु परस्पर अपनी-अपनी जाति में सब चेतन है-उसका ज्ञान उसको नहीं होता और उसका ज्ञान उसको नहीं होता। जैसे एक कूप का दर्दुर और कूप के दर्दुर को नहीं जानता और दूसरे कूप का दर्दुर उस कूप के दर्दुर को नहीं जानता वैसे ही जगमों की बोली स्थावर नहीं जान सकते और स्थावरों की बोली जङ्गम नहीं जान सकते। हे लीले! जो आदि संवित् में संवेदन फुरा है वैसा ही रूप होकर महाप्रलय पर्यन्त स्थित है—अन्यथा नहीं होता। जब उस संवित् में आकाश का संवेदन फुरता है तब आकाशरूप होकर स्थित होता है; जब स्पन्दता को चेतता है तब वायुरूप होकर स्थित होता है; जब उष्णता को चेतता है तब अग्निरूप होकर स्थिर होता है; जब द्रवता को चेतता हे तब जलरूप होकर स्थित होता है और जब गन्ध की चिन्तवना करता है तब पृथ्वीरूप होकर स्थित होता है। इसी प्रकार जिन जिनको चेतता हे वे पदार्थ प्रकट होते हैं। आत्मसत्ता में सब प्रतिविम्बित हैं। वास्तव में न कोई स्थावर है न जङ्गम है, केवल ब्रह्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आपमें स्थित है और उसमें भ्रम से जगत् भासते हैं और दूसरी कुछ वस्तु नहीं। हे लीले! अब राजा विदूरथ को देख कि मृतक होता है। लीला ने पूछा, हे देवि! यह राजा पद्म के शरीरवाले मण्डप में किस मार्ग से जावेंगा और इसके पीछे हम किस मार्ग से जावेंगे? देवी बोली हे लीले! यह