पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५५

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उत्पत्ति प्रकरण।

कहाँ थी, लीला का शरीर कहाँ था और उसकी सत्ता कहाँ थी? वह तो अरुन्धती के मन में लीला के शरीर की भ्रान्तिप्रतिभा हुई थी जैसे मरुस्थल में जल की प्रतिभा होती हे वैसे ही लीला के शरीर की प्रतिमा उसे हुई थी। हे रामजी! यह आधिभौतिक ज्ञान से भासता है और बोध से निवृत्त हो जाता है। जब उस लीला को बोध में परिणाम हुआ तब उसका आधिभौतिक शरीर निवृत्त हो गया—जैसे सूर्य के तेज से बरफ का पुतला गल जाता है—और मन्तवाहकता उदय हुई। हे रामजी! जो कुछ जगत् है वह सव आकाशरूप है। जैसे रस्सी में सर्प भ्रम से भासता है तैसे ही अन्तवाहकता में आधिभौतिकता भ्रम से भासती है। आदि शरीर मन्तवाहक है अर्थात् संकल्पमात्र है उसमें दृढ़ भावना हो गई उससे पृथ्वी आदि तत्त्वों का शरीर भासने लगा। वास्तव में न कोई भूत आदिक तत्त्व है और न कोई तत्त्वों का शरीर है। उसका शव शश के शृंगों की नाई असत् है। हे रामजी! आत्मा में अज्ञान से आधिभौतिक भासे हैं। जब आत्मा का बोध होता है तब आधिभौतिक नष्ट हो जाते हैं। जैसे किसी पुरुष ने स्वप्न में आपको हरिण देखा और जब जाग उठा तब हरिण का शरीर दृष्टि नहीं आया तैसे ही जान से आधिभौतिकता दृष्टि आई है और आत्मबोध हुए आधिभौतिकता दृष्टि नहीं पाती। जब सत्य का ज्ञान उदय होता तव असत् का ज्ञान लीन हो जाता है। जैसे रस्सी के अज्ञान से सर्प भासता है और रस्सी के ज्ञान से सर्प का ज्ञान लीन होता है तैसे ही सम्पूर्ण जगत् मन से उदय हुआ है और अज्ञान से आधिभौतिकता को प्राप्त हुआ है। जैसे स्वप्न में जगत् आधिभौतिक हो भासता है और जागे से स्वप्न शरीर नहीं भासता तैसे ही आत्मज्ञान से आधिभौतिकता निवृत्त हो जाती है और मन्तवाहक शरीर भासता है। रामजी बोले, हे भगवन्! योगीश्वर जो अन्तवाहक शरीर से ब्रह्मलोक पर्यन्त आते जाते हैं उनके शरीर कैसे भासते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अन्तवाहक शरीर ऐसे हैं जैसे कोई पुरुष स्वप्न में हो उसको पूर्व के जाग्रत् शरीर का स्मरण हो तब स्वम शरीर दृष्टि भी आता है पर उसको आकाशरूप जानता है; तैसे ही