पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५१
उत्पत्ति प्रकरण।

त्याग के दूसरे को अङ्गीकार करता है—जैसे स्वप्ने से स्वप्नान्तर प्राप्त होता है और जब बोध होता है तब शरीर और कुछ वस्तु नहीं, वही आधिभौतिक शरीरशान्त हो जाता है जैसे स्वम से जागके स्वपशरीरशान्त हो जाता है। हे रामजी! जो कुछ जगद तुमको भासता है वह सब भ्रममात्र है, अबान से सत् की नाई भासता है। जब आत्मबोध होगा तब सब आकाशरूप होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने स्वप्ननिरूपणं
नाम चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब वह दोनों देवियाँ अन्तःपुर में गई तब प्रबुध लीला कहने लगी, हे देवीजी! समाधि में लगे मुझको कितना काल व्यतीत हुआ? मैं ध्यान से भूपाल की सृष्टि में गई थी और मेरा शरीर यहाँ पड़ा था वह कहाँ गया? देवी बोली—हे लीले! तुझको समाधि में लगे इकतीस दिन व्यतीत हुए हैं जब तू ध्यान में लगी तब तेरा पुर्यष्टक विदूरथ की सृष्टि में विचरता फिरा जब इस शरीर की वासना तेरी निवृत्त हो गई तब जैसे रस से रहित पत्र सूख जाता है तैसे ही तेरा शरीर निर्जीव होकर गिर पड़ा और जैसे काष्ठ पाषाण होता है तैसे ही हो बरफ की नाई शीतल हो गया। तब देखके सबने विचार किया कि यह मर गई इसको जलाइये और चन्दन और घृत से लपेट के जला दिया। वान्धवजन रुदन करने लगे और पुत्रों ने पिण्डक्रिया की। हे लीले! जो तू ध्यान से उतरती तो तुझको देखके लोग आश्चर्यमान होते और अब भी देखके सब आश्चर्यमान होवेंगे कि रानी परलोक से फिर भाई है। हे लीले! अब तुझको बोध उदय हुआ है इससे शरीर की वासना नष्ट हो गई और अन्तवाहक में दृढ़ निश्चय हुआ इस कारण वह शरीर जीवित हुआ। अब जो उसके समान तेरा शरीर हुआ है वह इस कारण है कि तुझको लीला की वासना में बोध हुआ है कि मैं लीला हूँ, इस कारण तेरा शरीर तैसा ही रहा। यह लीला शरीर की तेरी वासना नष्ट न हुई थी, इस कारण तू निर्वाण न हुई, नहीं तो विदेहमुक्त हो जाती। अब तू सत्संकल्प हुई जैसी तेरी इच्छा होगी तैसे ही अनुभव होगा। हे लीले जैसी वासना जिसको होती है उसके अनुसार