पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२५८

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योगवाशिष्ठ।

उसको प्राप्त होता है। जैसे बालक को अन्धकार में जैसी भावना होती है तैसा ही भान होता है—जो वैताल की भावना होती है तो वैताल हो भासता है परन्तु वास्तव में वैताल कोई नहीं। तैसे जितनी आधिभौतिकता भासती है वह भ्रममात्र है। सब जीवों का आदि शरीर अन्तवाहक हे सो प्रमाद से आधिभौतिकता भासता है। हे लीले! एक लिंगशरीर है; एक अन्तवाहक शरीर है—यह दोनों संकल्पमात्र हैं और इनमें इतना भेद है कि लिंग शरीर संकल्पस्पी मन है उसमें जिसको आधिभौतिकता का अभिमान होता है उसको गौरत्व और कठोररूप और वर्णाश्रम का अभिमान होता है। जिस पुरुष को ऐसे अनात्मा में आत्माभिमान हुआ है जिसकी आधिभौतिक लिङ्गदेह है उसकी चिन्तना सत्य नहीं होती। जिसको आधिभौतिक का अभिमान नहीं होता वह अन्तवाहक शरीर है। वह जैसा चिन्तवन करता है वैसी ही सिद्धि होती है। हे लीले! तू अब अन्तवाहक में दृढ़ स्थित हुई है, इस कारण तेरा फिर वैसा ही शरीर हुआ है तेरी आधिभौतिकता बुद्धि नष्ट हो गई और वह स्थूल शरीर शव होकर गिर पड़ा है जैसे जल से रहित मेघ हो और जैसे सुगन्ध से रहित फूल हो तेसे ही तेरा शरीर हो गया है और अब तू सत्य संकल्प हुई है। जैसा चिन्तवन कर तैसा ही होगा। हे लीले! यह कमलनयनी लीला तेरे भर्ता के पास बैठी है और उसको इस अन्तःपुर के लोग और सहेलियाँ जान नहीं सकती, क्योंकि मैंने इनको निद्रा में मोहित किया था। जबतक मेरा दर्शन इसको न होवेगा तबतक इसको और कोई न जान सकेगा अब यह हमको देखेगी। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ऐसे विचारके देवी उसको अपने संकल्प से ध्यान करने लगी तब उस लीला ने देखा कि अन्तःपुर में बहुत से सूर्यों का प्रकाश इकट्ठा हुआ है और चन्द्रमा की नाई शीतल प्रकाश है। ऐसे दोनों देवियों को देखके उसने नमस्कार कर मस्तक नवाया और दोनों को स्वर्ण के सिंहासन पर बैठाके कहने लगी, हे जीव की दाता! तुम्हारी जय हो। तुमने मुझपर बड़ी कृपा की। तुम्हारे ही प्रसाद से में यहाँ भाई। देवी बोली, हे पुत्री! तू यहाँ कैसे भाई और क्या वृत्तान्त तूने देखा सो कह?