पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६२

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योगवाशिष्ठ।

जब तक आत्मा का आक्षात्कार न हो तब तक श्रवण, मनन और निदिध्यासन से दृढ़ अभ्यास करना चाहिए। जब साक्षात्कार होता है तब दृश्य नष्ट हो जाता है। हे रामजी! यह सर्व जगत् जो तुमको भासता है सो हमको अखण्ड ब्रह्मसत्ता ही भासता है। जगत् मायामय है, परन्तु माया भी कुछ और वस्तु नहीं, ब्रह्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है। रामजी बोले, बड़ा आश्चर्य है! बड़ा आश्चर्य है!! हे मुनीश्वर! आपने मुझसे परम दशा कही है। आपका उपदेश दृश्यरूपी तृणों का नाशका दावाग्नि है और आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक तापों का शान्तकर्ता चन्द्रमा है। हे मुनीश्वर! आपके उपदेश से अब मैं ज्ञातज्ञेय हुआ हूँ और पाँच विकल्प मैंने विचारे हैं। प्रथम यह कि यह जगत् मिथ्या है और इसका स्वरूप अनिर्वचनीय है; दूसरे यह कि श्रात्मा में आभास है; तीसरे यह कि इसका स्वभाव परिणामी है; चौथे यह कि अज्ञान से उपजा है और पाँचवें यह कि यह अनादि अज्ञान पर्यन्त है। ऐसे जान के ज्ञानवानों और निर्वाण मुक्तों की नाई शान्तात्मा हुआ। हे मुनीश्वर! और शास्त्रों से यह आपका उपदेश आश्चर्य है। श्रवणरूपी पात्र आपके वचनरूपी अमृत से तृप्त नहीं होते। इससे मेरा यह संशय दूर करो कि लीला के भर्ता को प्रथम वशिष्ठ, फिर पद्म भौर फिर विदूरथ की सृष्टि का अनुभव कैसे हुआ और उनमें उसको कहीं दिन हुआ, कहीं मास, कहीं वर्षों का अनुभव हुआ, सो काल का व्यतिक्रम कैसे हुआ? हे मुनीश्वर! इससे स्पष्ट करके कहिए कि आपके वचन मेरे हृदय में स्थित हों। एक बेर कहने से हृदय में स्थित नहीं होते, इससे फिर कहिये। वशिष्ठजीवाले, हे रामजी! शुद्धसंवित् सबका अपनाआप है। उससे जैसा संवेदन फुरता है तैसा रूप हो भासता है। कहीं क्षण में कल्पों के समूह बीते भासते हैं और कहीं कल्प में क्षण का अनुभव होता है। हे रामजी! जिसको विष में अमृतभावना होती है उसको अमृत ही हो भासता है और जिसको अमृत में विष की भावना होती है तब वही विषरूप हो भासता है। किसी पुरुष का कोई शत्रु होता है, पर उससे वह मित्र की भावना करता है तो वह मित्ररूप ही भासता है और जिसको मित्र में