पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५७
उत्पत्ति प्रकरण।

शत्रुभावना होती है तब वही शत्रु हो भासता है। हे रामजी! जैसा संवेदन फुरता है तैसा ही स्वरूप हो भासता है। जिसका संवेदन तीव्रभाव के अभ्यास से निर्मलभाव को प्राप्त होता है उसका संकल्पसत होता है और जैसे चेतता है तैसे ही सिद्ध होता है। इससे संवेदन की तीव्रता हुई है। हे रामजी! रोगी को एक रात्रि कल्प के समान व्यतीत होती है और जो आरोग्य होता है उसको रात्रि एक क्षण की नाई व्यतीत होती है। एक मुहूर्त के स्वप्न में अनेक वर्षों का अनुभव करता है और जानता है कि मैं उपजा हूँ, ये मेरे माता-पिता है; अब मैं बड़ा हुआ और ये मेरे वान्धव हैं। हे रामजी! एक मुहूर्त में इतने भ्रम देखता है और जागे पर एक मुहूर्त भी नहीं बीतता। हरिश्चन्द्र को एक रात्रि में बारह वर्षों का अनुभव हुआ था और राजा लवण को एक क्षण में सौ वर्षों का अनुभव हुआ था। इससे जैसा जैसा रूप होकर संवेदन फुरता है तैसा ही तैसा होकर भासता है। हे रामजी! ब्रह्मा के एक मुहूर्त में मनुष्य की मायु व्यतीत हो जाती है। ब्रह्मा जितने काल में एक मुहूर्त का अनुभव करता है मनुष्य उतने ही में पूर्ण आयु का अनुभव करता है और ब्रह्मा जितने काल में अपनी संपूर्ण आयु का अनुभव करता है सो विष्णु का एक दिन होता है। ब्रह्मा की आयु व्यतीत हो जाती है और विष्णु को एक दिन का अनुभव होता है। इससे जैसे जैसे संवेदन में दृढ़ता होती है तैसा तैसा भाव होता है। हे रामजी! जो कुछ जगत् तुम देखते हो सो संवेदन फुरने में स्थित है। जब संवेदन स्थित होता है तब न दिन भासता है; न रात्रि भासता है, न कोई पदार्थ भासते हैं और न अपना शरीर भासता है केवल आत्मतत्त्वमात्र सत्ता रहती है। इससे तुम देखो कि सब जगत् मन के फुरने में होता है। जैसा जैसा मन फुरता है तैसा तैसा रूप हो भासता है। कड़वे में जिसको मीठे की भावना होती है तो कडवा उसको मीठा हो जाता है और मीठे में जिसको कटुक भावना होती है तब मधुर भी उसको कटुकरूप हो जाता है। स्वन और शून्य स्थान में नाना प्रकार के व्यवहार होते भासते हैं और स्थित पड़ा स्वप्न में दौड़ता फिरता है। इससे जैसी फुरना मन में होती है